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ओरालमिस्स साणे संढत्थीणं च वोच्छिदी होदि । वेगुव्वमिस्स साणे इत्थीवेदस्स वोच्छेदो ॥40॥
औदारिकमिश्रस्य सासादने षंढ़स्त्रियोश्च व्युच्छित्तिः भवति । वैक्रियिकमिश्रस्य सासादने स्त्रीवेदस्य व्युच्छेदः ॥
अर्थ - औदारिक मिश्रकाययोग में सासादन गुणस्थान में नपुंसक वेद और स्त्रीवेद की व्युच्छित्ति हो जाती है। वैक्रियिकमिश्र काययोग में सासादन गुणस्थान में स्त्रीवेद के आस्रव की व्युच्छित्ति हो जाती है ।
तेसिं साणे संढं णत्थि हु सो होइ अविरदे ठाणे । कम्मइए विदियगुणे इत्थीवेदच्छिदी होइ ॥ 41||
तेषां सासादने षंढ़ नास्ति हु स भवति अविरते स्थाने । कार्मणे द्वितीयगुणे स्त्रीवेदच्छित्तिः भवति ॥
अर्थ - वैक्रियिकमिश्र काययोग में सासादन गुणस्थान में नपुंसकवेद नहीं पाया जाता है। तथा चतुर्थ गुणस्थान में नपुंसकवेद होता है। कार्मण योग में द्वितीय गुणस्थान में स्त्रीवेद की व्युच्छित्ति हो जाती है।
हस्सादीणोकसायछकं
च ।
बारस आहारगे जुम्मे ॥42||
संजलणं पुवेयं णियएक्कजोग्गसहिया
पुवेद
संज्वलनं निजैकयोगसहिता
व्दादश
अर्थ - आहारक, आहारक मिश्र काययोग में चारों संज्वलन कषाय, पुंवेद, छ: हास्यादि नोकषाय एवं स्वकीय एक योग सहित ( 4 + 7 + 1) बारह आम्रव होते हैं ।
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हास्यादिनोकषायषट्कं
आहारके
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च ।
युग्मे ॥
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