________________
माणादितिये एवं इदरकसाणहिं विरहिदा जाणे। कुमदिकुसुदे ण विज्जदि हारदुगं होति पणवण्णा ||46||
मानादित्रिके एवं इतरकषायैः विरहितान् जानीहि । कुमतिकुश्रुतयोः न विद्यते आहारद्धिकं भवन्ति पंचपंचाशत् ॥
अर्थ - अनन्तानुबंधी - अप्रत्याख्यानादि चारों प्रकार के क्रोध में अपनी चार कषाय के अतिरिक्त अन्य बारह कषायों को कम करने पर शेष (57-12) = 45 आस्रव होते हैं। इसी प्रकार मानादि त्रय चतुष्क में अपनी चार कषायों के अतिरिक्त अन्य बारह कषायों को कम करने पर शेष पैंतालीस आम्रव जानना चाहिए। कुमति और कुश्रुतज्ञान में आहारकद्विक को छोड़कर शेष पचपन आम्रव होते हैं।
वेभंगे बावण्णा कमणमिस्सदुगहारदुगहीणा। णाणतिये अडदालं पणमिच्छाचारिअणरहिदा ।।47।।
विभंगे दिपंचाशत् कार्मणमिश्रद्धिकाहारद्धिकहीनाः। ज्ञानत्रिके अष्टचत्वारिंशत् पंचमिथ्यात्वचतुरनरहिताः॥
अर्थ - विभंगावधि ज्ञान में कार्मण काययोग, औदारिकमिश्र काययोग, वैक्रियिकमिश्र काययोग, आहारकद्विक बिना शेष बावन आस्रव होते हैं। मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी व अवधिज्ञानी जीवों के अनन्तानुबंधी चतुष्क और पाँच मिथ्यात्व को छोड़कर अड़तालीस आस्रव होते हैं।
[54]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org