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________________ गुणस्थान आस्रव व्युच्छित्ति आस्रव आस्रव अभाव 2 सासान 4[अनन्तानुषन्धी- 44[उपर्युक्त 51-7(मिथ्यात्व 5, 7 [मिथ्यात्व 5, क्रोध, मान, माया, वैक्रियिकमिश्रऔर वैक्रियिकमिश्र और लोभ] कार्मणकाययोग)] कर्मणकाययोग] 3. मिश्र | |40 [उपर्युक्त 44 11[उपर्युक्त 7+ अनन्तानुबन्धी 4 - क्रोध, मान, अनन्तानुबन्धी 4] माया, लोभ] 14. अविस्त 40 [उपर्युक्त 11 [उपर्युक्त 6[अप्रत्याख्यान 4, सअविरति, वैक्रियिककाययोग] वेगुव्वाहारदुगं ण होइ तिरियेसु सेसतेवण्णा। एवं भोगावणिजे संढ़ विरहिऊण बावण्णा ॥29।। वैक्रियिकाहारदिकं न भवति तिर्यक्षु शेषत्रिपंचाशत् । एवं भोगावनीजेषु षंढ़ विरह्य दापंचाशत् ।। अर्थ - कर्मभूमि तिर्यंचों के वैक्रियिक, वैक्रियिक मिश्र काययोग, आहारक, आहारक मिश्र काययोग ये आस्रव (प्रत्यय) नहीं होते हैं शेष तिरेपन आस्रव (प्रत्यय) होते हैं। इसी प्रकार भोग भूमिज तिर्यंचों के उपर्युक्त तिरेपन आस्रव में से नपुंसकवेद को छोड़कर शेष बावन आस्रव होते हैं। लद्धिअपुण्णतिरिक्खे हारदु मणवयण अट्ट ओरालं। वेगुव्वदुगं पुंवेदित्थीवेदं ण बादालं ।।30॥ लब्ध्यपूर्णतिर्यक्षु आहारकदिकं मनवचनाष्टकं औदारिकं । वैक्रियिकब्दिकं पुंवेदस्त्रीवेदौ न व्दाचत्वारिंशत् ॥ अर्थ - लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंचों के आहारकद्विक - चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक काययोग, वैक्रियिकद्विक, पुंवेद, स्त्रीवेद को छोड़कर ब्यालीस आस्रव होते हैं। [23] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002706
Book TitleAsrava Tribhangi
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size4 MB
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