Book Title: Asrava Tribhangi
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur

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Page 44
________________ पुंवेदित्थिविगुव्वियहारदुमणरसणचदुहि एयक्खे । मणचदुवयणचदुहि य रहिदा अडतीस ते भणिदा ।।35।। पुंवेदस्त्रीवैक्रियिकाहारकद्धिकमनोरंसनाचतुर्भि: एकाक्षे । मनचतुर्वचनतुर्मिश्च रहिता अष्टात्रिंशत्ते भणिताः॥ अर्थ - एकेन्द्रिय जीवों में पुंवेद, स्त्रीवेद, वैक्रियिकद्विक, आहारकद्विक, मन, रसना इन्द्रिय, घ्राण इन्द्रिय, चक्षु इन्द्रिय और श्रोत्र इन्द्रिय अविरति, चार मनोयोग तथा चार वचनयोग इन उन्नीस आम्रवों के बिना शेष अड़तीस आस्रव कहे गये हैं। एयक्खे जे उत्ता ते कमसो अंतभासरसणेहिं। घाणेण य चक्खूहिं य जुत्ता वियलिंदिए णेया ।।36।। एकाक्षे ये उक्तास्ते क्रमशः अन्तभाषारसनाभ्यां । घ्राणेन च चक्षुभ्या॑ च युक्ता विकलेन्द्रिये ज्ञातव्याः॥ अर्थ - द्वीन्द्रियों में रसनेन्द्रिय अविरति व अनुभय वचनयोग को उपर्युक्त एकेन्द्रिय जीवों के अड़तीस आम्रवों में मिलाने से चालीस आम्रव होते हैं। त्रीन्द्रिय जीवों में घ्राणेन्द्रिय संबंधी अविरति मिलाने से इक्तालीस आस्रव तथा चतुरिन्द्रिय जीवों में चक्षुरिन्द्रिय की अविरति मिलाने पर ब्यालीस आम्रव होते है। इगविगलिंदियजणिदे सासणठाणे ण होइ ओरालं। इणमणुभयं च वयणं तेसिं मिच्छेव वोच्छेदो।।37|| 1. मनोरसनाघ्राणचक्षुः श्रोत्राविरतिभः। 2. अनुभयभाषा। 3. द्वीन्द्रिये अनुभयवचनरसनेन्द्रियाभ्यां युक्ताः, त्रीन्द्रिये ताभ्यां सह घ्राणेन सहिता: चतुरिन्द्रिये तैः सह चक्षुरिन्द्रियेण युक्ताः। [35] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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