Book Title: Asrava Tribhangi
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur

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Page 17
________________ अर्थ - प्रमत्त गुणस्थान में ग्यारह अविरति और प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय ये पन्द्रह आस्रव नहीं हैं। आहारक काययोग, आहारक मिश्रकाययोग का आस्रव होता है। आहारक काययोग, आहारक मिश्र काययोग का सप्तम और अष्टम-गुणस्थान में आस्रव नहीं है। छण्णोकसाय णवमे ण हि दसमे संढमहिलपुंवेयं । कोहो माणो माया ण हि लोहो णत्थि उवसमे खीणे ।।17।। षण्णोकषायाः, नवमे 'नहि'' दशमे षंढमहिल'वेदाः। क्रोधो मानो माया 'नहि लोभी, नास्ति उपशमे, क्षीणे ॥ अर्थ - नवमें गुणस्थान में छह नोकषाय, दशवें गुणस्थान में नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, पुंवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया एवं उपशांत मोह और क्षीण मोह गुणस्थान संज्वलन लोभ में नहीं पाया जाता है। अलियमणवयणमुभयं णत्थि जिणे अत्थि सचमणुभयं । मिस्सोरालियकम्मं अपचयाऽजोगिणो होति||18|| अलीकमनोवचनं उभयं नास्ति', जिने अस्ति सत्यमनुभयं । मिश्रौदारिककार्मणा, अप्रत्यया अयोगिनो भवन्ति ॥ अर्थ - जिनेन्द्र भगवान (सयोगकेवली) के असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, असत्य वचनयोग और उभय वचनयोग नहीं है तथा सत्य, अनुभय मनोयोग- वचनयोग, औदारिकमिश्र और कार्मण काययोग का सद्भाव है एवं अयोग केवली के समस्त आम्रव अभाव रूप हैं। 1-2. व्युच्छिते इत्यर्थः। 3 शून्यमित्यर्थः। 4 व्युच्छिद्यते इत्यर्थं : । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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