Book Title: Asrava Tribhangi
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur

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Page 13
________________ मिच्छे खलु मिच्छत्तं अविरमणं देससंजदो 'त्ति हवे। सुहुमो त्ति कसाया पुणु सजोगिपेरंत जोगा हु ॥७॥ मिथ्यात्वे खलु मिथ्यात्वं अविरमणं देशसंयतमिति भवेत् । सूक्ष्ममिति कषायाः पुनः सयोगिपर्यन्तं योगा हि ॥ अर्थ - निश्चय से मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यात्व, देशसंयम अर्थात् पंचम गुणस्थान तक अविरति, सूक्ष्मसांपराय अर्थात् दशमें गुणस्थान तक कषाय तथा सयोग केवली गुणस्थान तक योग रूप आस्रव पाया जाता है। मिच्छदुगविरदठाणे मिस्सदुकम्मइयकायजोगा य। छढे हारदु केवलिणाहे ओरालमिस्सकम्मइया।।10।। मिथ्यात्वद्धिकाविरतस्थाने मिश्रदिककार्मणकाययोगाश्च । षष्ठे आहारदिकं केवलिनाथे औदारिकमिश्रकार्मणाः ॥ अर्थ - मिथ्यात्व, सासादन और अविरत नामक चतुर्थ गुणस्थान में औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग, वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्र काययोग, छठवें गुणस्थान में आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग तथा (सयोग) केवली भगवान के औदारिक मिश्र और कार्मण काययोग पाया जाता है। 1. इति यावदर्थे। 2. चदुपञ्चगो मिच्छे बंधो पढ़मे णंतरतिगे तिपच्चइगो। मिस्सगविदियं उवरिमदुगं च देसेक्कदेसम्मि ।।1।। उवरिलपंचये पुण दुपच्चया जोगपचओ तिण्हं । सामण्णपचया खलु अट्टण्हं होति कम्माणं ।।2।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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