Book Title: Asrava Tribhangi
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur

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Page 11
________________ मिथ्यात्वोदयेन मिथ्यात्वमश्रद्धानं तु तत्वार्थानां । एकान्तं विपरीतं विनयं संशयितमज्ञानम् ॥ अर्थ - मिथ्यात्व कर्म के उदय से मिथ्यादृष्टि जीव पदार्थों का विपरीत श्रद्धान करता है । वह मिथ्यात्व एकांत, विपरीत, वैनयिक, संशय और अज्ञान के भेद से पाँच प्रकार का होता है। । छस्सिदिएसुऽविरदी छज्जीवे तह य अविरदी चेव । इंदियपाणासंजम दुदसं होदित्ति णिद्दिट्टं ॥4॥ षट्स्विन्द्रियेष्वविरतिः षड्जीवेषु तथा चाविरतिश्चैव । इन्द्रियप्राणासंयमा व्दादश भवन्तीति निर्दिष्टं ॥ अर्थ पाँच इन्द्रियों के विषय, छठवाँ मन इस प्रकार इन्द्रिय असंयम के छह भेद, पंच स्थावर तथा त्रस जीवों की हिंसा इस प्रकार प्राणी असंयम के छह भेद, इस प्रकार दो प्रकार की अविरति बारह भेद रूप होती है यह जिनेन्द्र देव के द्वारा कहा है । अणमप्पच्चक्खाणं पच्चक्खाणं तहेव संजलणं । कोहो माणो माया लोहो सोलस कसायेदे ||5|| अनमप्रत्याख्यानः प्रत्याख्यान: तथैव संज्वलनः । क्रोधो मानो माया लोभ: षोड़श कषाया एते ॥ -- अर्थ - अनन्तानुबंधी - क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ तथा संज्वलन - क्रोध, मान, माया, लोभ इस प्रकार कषाय के ये सोलह भेद हैं । 1 अनन्तानुबन्धि । Jain Education International - For Private & Personal Use Only [2] www.jainelibrary.org

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