Book Title: Asrava Tribhangi Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur View full book textPage 7
________________ सम्पादकीय... भाव त्रिभङ्गी का कार्य करते समय आस्रव त्रिभङ्गी माणिकचन्द्र ग्रंथमाला से प्रकाशित “भाव संग्रहादि" में देखने को प्राप्त हुई थी। जिसका किसम्पादन और संशोधककार्य श्री पं. पन्नानाल सोनी ने किया है। दूसरी प्रति ब्र. अनिल जी, आरा के पाण्डुलिपिभण्डार से विस्तर-त्रिभङ्गी आचार्यकनकनन्दि विरचित लाये थे। जिसमें आम्नव त्रिभङ्गी देखने को प्राप्त हुई थी। दोनों प्रतियों की सहायता से यह कार्य प्रारंभ किया था। आरा से प्राप्त पाण्डुलिपिसे कुछ संदृष्टियाँजो किभाव संग्राहाद्रि में प्रकाशित आस्रव त्रिभङ्गी में नही है उनको इस ग्रंथ में समाहित किया है। इस चिन्ह से वे संदृष्टियाँ इसमें प्रकाशित की गई है।इसग्रंथका प्रकाशनअनुवादसहितप्रथम वारकिया जारहा है। यह सब कुछ आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी एवं विद्यागुरुपं. पन्नालाल “साहित्याचार्यजी" केआशीष का हीसुफल हैकिजिससे यह कार्य निर्विघ्नतासेसहज ही सम्पन्न होगया। ग्रंथमेंप्रतिपाद्य: आचार्यश्री श्रुतमुनि ने आम्रवोंकेसत्तावन भेद बतलाने केपश्चात्क्रमश: गुणस्थान औरमार्गणास्थानोंमेंआम्रवोंकी व्युच्छित्ति, आस्रवसद्भाव और आम्रव अभाव इन तीनोंका विवेचनगाथाओंतथा मूल संदृष्टियोंकेसाथ किया है। ग्रंथविशेषता: कर्मकाण्ड में आस्रव मात्र का उल्लेख गुणस्थानों में प्राप्त होता है किन्तु कार्मण स्थानोंमेंसंदृष्टियुक्त विस्तृत विवेचन तथा आम्रव व्युच्छित्ति आम्रव और आम्रव अभाव, रूप विवेचन अन्यत्र ग्रंथोंमें उपलब्धनहीं होता है। ग्रंथविचारणीयबिन्दु :* गाथासंख्या 43 में पुंवेद में स्त्रीवेद और नपुंसकवेद को छोड़कर शेष सभी पचपन आम्रव होते हैं। स्त्रीवेद में आहारकद्विक, पुंवेद और नपुंसकवेदको छोड़कर शेष सभी तिरेपन आस्रव होते हैं तथा नपुंसकवेद में स्त्रीवेद, पुंवेद आहारकद्विकको छोड़कर शेष तिरेपन आस्रव होते हैं। यहाँयह विचारणीय है कि'वेदमेंस्त्रीवेद और नपुंसकवेदकेआस्रव का अभाव क्योंबतलाया है? जबकि कर्मकाण्ड में पुंवेद में सत्तावन आम्रवोंका कथन उपलब्ध होता है [IV] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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