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अर्हत् वचन (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर)
वर्ष - 15, अंक - 3, 2003, 17 - 22 पर्यावरण संरक्षण के परम्परागत तरीके
- आचार्य कनकनन्दी*
सारांश प्रस्तुत आलेख में प्राचीन साहित्य में उपलब्ध पर्यावरण संरक्षण विषयक सन्दर्भो को संकलित करने के उपरान्त जैन गृहस्थों एवं मुनियों की चर्या (जीवन पद्धति) से होने वाले पर्यावरण संरक्षण की चर्चा की गई है।
सम्पादक "विश्व भरण पोषण करे जोइ, ताकर भारत असो होई' अर्थात् जो राष्ट्र/देश विश्व को ज्ञान - विज्ञान, दर्शन - आध्यात्म, गणित, अहिंसा, विश्वशांति, विश्वमैत्री, पर्यावरण सुरक्षा, परस्परोपग्रहो जीवानाम्, वसुधैव कुटुम्बकम्, सर्वजीवसुखाय - सर्वजीवहिताय, राजनीति, कानून, समाज व्यवस्था, अभ्युदय - निश्रेयस् आदि सर्वोदयी सिद्धान्त/सूत्र देकर विश्व का भरण-पोषण करे उसे भारत कहते हैं। इसीलिये तो भारत को विश्वगुरु, सोने की चिड़िया, घी- दूध की नदी बहाने वाला देश कहा गया है।
भारत के तीर्थंकर, बुद्ध, ऋषि, मुनि आदि महान् आध्यात्मिक वैज्ञानिकों ने आध्यात्मिक अनन्त ज्ञान से अखिल विश्व के समस्त तत्वों के समस्त रहस्यों को समग्रता से, पारदर्शिता से, परिज्ञान करके विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया। ये सत्य/तथ्य वैश्विक एवं त्रैकालिक होने से सदा - सर्वदा - सर्वत्र नित्य नूतन, नित्य पुरातन, समसामयिक, प्रासंगिक जीवन्त हैं। वे प्रकृतिज्ञ होने के कारण प्रकृति की सुरक्षा - संवृद्धि सम्बन्धी उनका ज्ञान भी उपरोक्त प्रकार का है।
भारतीय ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति, अध्यात्मिका के साथ - साथ वैश्विक/प्राकृतिक होने के कारण भारतीय परम्परा में अखिल जीव जगत् एवं सम्पूर्ण प्रकृति की सुरक्षा - सम्वृद्धि सब से महत्वपूर्ण अंग है। इसीलिये तो भारत में विश्व को स्वकुटुम्ब रुप में स्वीकार किया
है।
अयं निज:परो वेत्ति भावना लघुचेतसाम्।
उदार पुरुषाणां तु वसुधैव स्वकुटुम्बकम्॥' क्षुद्र, संकुचित भावना युक्त व्यक्ति में अपना - पराया का निकृष्ट भेदभाव रहता है, परन्तु उदारमना सम्पूर्ण विश्व को अपना परिवार मानता है, जिससे व्यक्ति विश्व के प्रत्येक जीव को अपने परिवार का एक सदस्य मानकर सबके साथ मैत्री, प्रेम, उदारता, समता का व्यवहार करता है। इसको ही विश्व बन्धुत्व, सर्वत्मानुभुत कहते हैं। यह है धर्म का सार अहिंसा का आधार. विश्व शांति का अमोघ उपाय, पर्यावरण सुरक्षा के परम्परागत सार्वभौम शाश्वतिक, सर्वोत्कृष्ट तरीके। जैन आचार्य ने कहा भी है -
जीव जिणवर से मुणहि जिणवर जीव मुणहि।
ते समभाव परट्ठियार लह णिव्वाणं लहइ॥2 जो जीव को जिनवर एवं जिनवर को जीव मानता है, वह परम साम्य भाव में
* दिगम्बर जैन धर्म संघ में दीक्षित आचार्य,C/O. धर्म दर्शन सेवा संस्थान, 55, रवीन्द्र नगर, उदयपुर - 313003 (राज.)
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