Book Title: Arhat Vachan 2003 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 22
________________ भारतीय महान् महान् आध्यात्मिक वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित भावात्मक प्रदूषण तथा उससे जायमान समस्त प्रदूषण एवं पर्यावरण सुरक्षा के उपाय शाश्वतिक, सार्वभौम हैं। निम्न पंक्तियों में हम परम्परागत पर्यावरण सुरक्षा के तरीकों के बारे में संक्षिप्त प्रकाश डाल रहे हैं - 1. अहिंसा से पर्यावरण संरक्षण 'अहिंसा परमोधर्मः', 'अहिंसत्वं च भूतानाममृततत्वाय कल्पते', 'अहिंसा परमं सुखमं', 'जिओ और जीने दो' आदि सूत्र भारत के परम्परागत पर्यावरण संरक्षण के तरीकों को बताते हैं। इन सूत्रों से सिद्ध होता है कि जीवों की सुरक्षा ही परम धर्म है, अमृत है, परमब्रह्म है, परम सुख स्वरूप है। जैन धर्मानुसार ( 1 ) पृथ्वीकायिक, (2) जलकायिक, (3) अग्निकायिक, (4) वायुकायिक, ( 5 ) वनस्पतिकायिक आदि एकेन्द्रिय स्थावर जीव हैं तथा लट आदि द्वि इन्द्रिय, चींटी आदि त्रि इन्द्रिय, मक्खी आदि चतुरिन्द्रिय तथा मनुष्य, पशु-पक्षी, मछली आदि पंचेन्द्रिय त्रस जीव हैं। इन सबको क्षति न पहुँचाना अहिंसा है। भारतीय परम्परागत में जो वृक्ष, नदी, पर्वत, अग्नि, जल, सूर्य, पृथ्वी आदि की पूजा की जाती है उसका मुख्य उद्देश्य इन सबकी सुरक्षा संवृद्धि है। जैन मुनि समस्त प्रकार की हिंसा से निवृत्त होते हैं। यथा - 'पढमे महव्वदे सव्वं भंते! पाणादिवादं पच्चक्खामि जावजीवं, तिविहेण मणसा, वयसा, काएण, से ए - इंदिया वा, वे इंदिया वा ते इंदिया वा चु- इंदिया वा पंचिन्दिया वा, पुढविकाइए वा, आउकाइए वा, तेउकाइए वा, वाउकाइए वा वणप्फदिकाइए वा, तसकाइए वा, अंडाइए वा, उन्भेदिमे वा, उववादिमे वा, तसे वा, थावरे वा, बादरे वा, सुहुमे वा, पाणे वा, भूदे वा जीवे वा, सत्ते वा, पज्जत्ते वा अपज्जतत्ते वा अविचउरासीदि जोणि पमुह सदसहस्सेसु, णेव सयं पाणादिवादिज्ज, णो अण्णोहिं पाणे आदिवादावेज्ज, अण्णेहिं पाणे अदिवादिज्जंतो वि ण समणुमणिज्ज । तस्स भंते! अइचारं पडिक्कमामि, णिंदामि, गरहामि अप्पाणं वोस्सरामि । पुव्वचिणं भंते । जं पि मए रागस्स वा, दोसस्स वा, मोहस्स वा वसंगदेण सयं पाणे अदिवादाविदे, अण्णेहिं पाणे अदिवादाविदे, अण्णेहिं पाणे अदिवादिज्जंते वि समणुमणिदे तं वि।' (वृहत् प्रतिकमण) - हे भगवन् ! प्रथम महाव्रत में सम्पूर्ण जीवों के घात का मैं आजीवन के लिये तीन प्रकार से अर्थात् मन, वचन, काय से त्याग करता हूँ। एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीव तथा काय की अपेक्षा पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक जीव, अंडज, पोतज, जरायिक, रसायिक, संस्वेदिम, सम्मूर्च्छिम, उद्भेदिम, उपपादिम, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, विकलत्रय, वनस्पतिकायिक, पंचेन्द्रिय जीव एवं पृथ्वीकाय से वायुकायिक पर्यन्त पर्याप्त, अपर्याप्त और 84 लाख योनियों के प्रमुख जीवों के प्राणों का घात न स्वयं करे, प्राणों का घात न दूसरों से करावें अभवा प्राणों का घात करने वाले न अन्य की अनुमोदना करे। हे भगवन् ! उस प्रथम महाव्रत में तत् सम्बन्धी अतिचारों का त्याग करता हूँ, करता हूँ, गर्हा करता हूँ। हे भगवन्! अतीत काल में उपार्जित जो भी मैंने राग-द्वेष से अथवा मोहों के वशीभूतहोकर उपर्युक्त जीवों में से किसी भी जीव के प्राणों का घात स्वयं किया हो, प्राणों का घात अन्य से कराया हो अथवा प्राण का घात करवाने वाले अन्य जीवों की अनुमोदना की हो तो उन सर्वदोषों का मैं त्याग करता हूँ। अपनी निन्दा 20 मुनि के समान गृहस्थी तो सभी प्रकार की हिंसा का त्याग नहीं कर सकता है परन्तु यथायोग्य अहिंसा अणुव्रत का पालन करता है। अनावश्यक किसी भी जीव को नहीं सताता है। यथा - अर्हत् वचन, 15 (3), 2003 Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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