Book Title: Arhat Vachan 2003 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

View full book text
Previous | Next

Page 27
________________ ह। बाह्य विषया स मुक्त हाकर अन्तमुखा हाना प्रत्याहार कहलाता है। शात चित्त का शरीर के किसी स्थान पर एकाग्र करने को धारणा कहते हैं और चित्त वृत्ति से उसी विषय में निरन्तर लगाए रखने को ध्यान कहते हैं। जब केवल ध्येय स्वरूप का ही भान रहे, ध्यान की उस अवस्था को समाधि कहते हैं। लेकिन आजकल विश्वभर में प्रचलित योगाभ्यास प्राय: आसन और प्राणायाम करने तक ही सीमित हैं। ध्यान के अन्य अंगों का प्राय: पालन नहीं किया जाता है। हाँ! इतना अवश्य है कि आज भी योगाभ्यासी को सात्विक एवं सादा भोजन करने की सलाह दी जाती है। पातंजलि ने यम, नियम आदि की जो व्याख्या की है तथा आसन और ध्यान की बात कही है वह वस्तुत: जैन धर्म में वर्णित पाँच पापों से विरक्ति (व्रत), कषायादि से बचने, आसन पूर्वक सामायिक, धर्म ध्यान और कायोत्सर्ग के समकक्ष ही हैं। अत: व्रत और उपवास वस्तुतः समाधि प्राप्त करने की दिशा में जाने का प्रयास ही है। अन्त:स्रावी ग्रंथियों और उपवास हमारे शरीर में आठ प्रमुख अन्त:स्रावी ग्रंथियाँ पाई जाती हैं। ये हैं - पीयूस, पिनियल, थायरोइड़, पेरा - थाइरोइड, थायमर्स, एंड्रिनल, पैंक्रियाज और प्रजनन। ये ग्रंथियाँ निरन्तर रस साव करती रहती हैं। इन ग्रंथियों से होने वाला रस स्राव जब तक संतुलित रहता है, मनुष्य स्वस्थ बना रहता है और जब इन स्रावों में असन्तुलन होने लगता है, रोग प्रकट होने लगते हैं। हमारी वृत्तियों और कामनाओं का उद्गम इनके द्वारा ही होता है। हमारा रहन-सहन, चिंतन - मनन, खान - पान तथा आचार - विचार अन्त:स्रावी ग्रंथियों पर बहुत प्रभाव डालते हैं। व्रत-उपवास द्वारा इन ग्रंथियों को नियन्त्रण में रखा जा सकता है तथा इनसे होने वाले रस स्रावों में सन्तुलन रखा जा सकता है। व्रत - उपवास में भोजन, विचार और मन पर हमारा नियन्त्रण होने लगता है, फलत: शरीर भी स्वस्थ रहता है। उपवास द्वारा चिकित्सा - मनुष्य को छोड़कर जितने भी प्राणी इस संसार में हैं, उनमें प्राय: एक विशिष्ट बात देखने में आती है। यदि उन्हें कुछ बीमारी हो जाय या कहीं उन्हें चोट लग जाय तो सबसे पहले उनका कदम होता है कि वे अपने भोजन का त्याग कर देते हैं। जब तक वे थोड़े स्वस्थ होना प्रारम्भ न कर दें वे आहार ग्रहण नहीं करते हैं। और प्राय यह देखा गया है कि वे शीघ्र ही ठीक हो जाते हैं। लेकिन यदि मनुष्य को कुछ बीमारी हो जाय तो वह दवा के लिए भागता है। वह अपने शरीर को प्राकृतिक रूप से ठीक ही नहीं होने देता है। यदि वह वैसा ही करे जैसा बीमारी के समय अन्य पशु- पक्षी करते हैं तो उसे भी नि:संदेह लाभ तो होता ही है। और यदि साथ में आत्म - चिंतन भी करें तो यह लाभ कई गुना हो जाता है। एक बात नवजात छोटे बच्चों में तो देखी गई है कि यदि उन्हें शरीर में कुछ परेशानी होती है तो वे प्राय: दूध आदि ग्रहण करना नहीं चाहते हैं। यदि कोई उन्हें चम्मच आदि से दूध देने का प्रयत्न करता है तो वे अपना मुँह बन्द कर लेते हैं। लगता है कि वे भी पशु-पक्षियों की तरह शारीरिक परेशानी के समय भोजन ग्रहण नहीं करना चाहते हैं। लेकिन हम बड़ी उम्र के लोग उन बच्चों को जबरदस्ती आहार कराना चाहते हैं। वस्तुत: मनुष्य का शरीर एक अद्भुत और संपूर्ण यंत्र है। जब वह बिगड़ जाता अर्हत् वचन, 15 (3), 2003 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148