Book Title: Arhat Vachan 2003 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 42
________________ चित्र क्रमांक 1 - सामान्य आत्मज्ञानी की समझ मैं अनन्त सुख व शक्ति का भण्डार, अविनाशी आत्मा हूँ। मेरी आत्मा सदैव पूर्ण है। इसमें न तो कुछ मिलाना सम्भव है और नही| कुछ घटाना। सभी आत्माएँ बिगाड़-सुधार से परे हैं। सष्टि में सभी कुछ नियमों के अनुसार ही होता है। कर्म-सिद्धान्त किसी का पक्षपात नहीं करता है। किन्तु जो प्राणी सत्य समझ को अपनाते हैं उनकी मनोकामना, सामान्यतया पूर्ण होती हैं। प्रत्येक चाह का पूर्ण होना आवश्यक नहीं है। चाह पूर्ति की स्थिति में कभी मन में प्रसन्नता या होठों पर मुस्कान हो, व चाह-पूर्ति न होने की स्थिति में कभी मन में अप्रसन्नता या आँखों में आँसू आ सकते हैं किन्तु हर स्थिति में । मैं तो आत्मा हूँ इस तरह की । प्रसन्नता या अप्रसन्नता का मात्र ज्ञाता- दृष्टा हूँ। मन एव शरीर की आवश्यकता, व काममाएँ। अनुशासित व संयमित रहते हुए पूर्ण होती| रहें। मन की शक्ति का उपाय चाह कम करके आत्मदृष्टि करने में है। चाह कम करने में सुस्ती भी उचित नहीं, उतावलापन भी उचित नहीं। परोपकार, सत्संग, अध्ययन, यथायोग्य मेल-मिलाप, उचित भोजन, उचित वाणी, ध्यान आदि इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण 40 Jain Education International अर्हत् वचन, 15 (3). 2003 www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

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