Book Title: Arhat Vachan 2003 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 68
________________ - वात्सल्य भाव से अनुप्राणित होकर जैनाचार्यों ने लोक हित के अनेक विषयों पर विपुल ग्रंथ राशि का सृजन भी किया है। सम्पूर्ण जैन साहित्य के विषयानुसार विभाजन, जिसे अनुयोग की संज्ञा दी जाती है, के क्रम में निम्नवत चार वर्ग प्राप्त होते हैं। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में लिखा है : तदनुसार चार अनुयोग निम्नवत् हैं - 1. प्रथमानुयोग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन पुरूषार्थों तथा इनके साधन करने वालों की कथाएँ महापुरूषों के जीवन चरित्र, त्रेषठ शलाका पुरूषों एवं उनके पूर्व भवों का जीवनवृत्त, पुण्यकथाएँ आदि इसमें सम्मिलित हैं। जैसे- आदिपुराण, हरिवंश पुराण आदि । प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः । * - 2. करणानुयोग इसमें लोक के स्वरूप भूगोल - खगोल, गणित, कर्म सिद्धांत, आदि की चर्चा हैं । जैसे तिलोयपण्णत्ती, जम्बुद्दीवपण्णत्ती संगहो, गोम्मटसार जीवकाण्ड लब्धिसार, त्रिलोकसार, आदि । कर्मकाण्ड, 66 - 3. चरणानुयोग जिसमें गृहस्थों एवं साधुओं के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि एवं संरक्षण के नियमों का वर्णन समाहित हैं। जैसे सागर धर्मामृत आदि। मूलाचार, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, अनगार धर्मामृत, Jain Education International 4. द्रव्यानुयोग इसमें जीव अजीव आदि सात तत्वों, नव पदार्थों, षट् द्रव्यों, अध्यात्म विषयक चर्चा हैं। जैसे- पंचास्तिकाय, समयसार, प्रवचनसार, द्रव्यसंग्रह आदि । - इस विभाजन से स्पष्ट है कि करणानुयोग का साहित्य, गणितीय सिद्धांतों से परिपूर्ण है। लोक के स्वरूप के विवेचन, आकार, प्रकार, ग्रहों की स्थिति इत्यादि के निर्देशन में अनेक जटिल ज्यामिति संरचनाओं, मापन की पद्धतियों का विवेचन तो मिलता ही हैं। कर्म की प्रकृतियों के विवेचन में क्रमचय - संचय (Combination and Permutation) राशि सिद्धांत (Set Theory) निकाय सिद्धांत (System Theory) घातांक के सिद्धांत (Theory of Indices) लघुगुणकीय सिद्धांत (Principle of Logarithms) आदि का व्यापक प्रयोग हुआ है । अध्यात्म विषयक विवेचनों में भी अपने तर्कों की सुसंगता सिद्ध करने हेतु गणितीय प्रक्रियाओं का प्रयोग किया गया है। गणितीय सिद्धांतों का पल्लवन अथवा स्थापना जैनाचार्यों का साध्य नहीं रहा, किन्तु वे साधन रूप में जरूर प्रयुक्त हुए हैं। किन्तु गणित उसमें ऐसी रचपच गई कि 18 वीं शताब्दी के बहुश्रुत विद्वान पं. टोडरमलजी को गोम्मटसार की पूर्व पीठिका में लिखना पड़ा कि बहुरि जे जीव संस्कृतादिक ज्ञानते सहित हैं किन्तु गणितादिक के ज्ञान के अभाव ते मूल ग्रंथन विषय प्रवेश न पावे हैं, तिन भव्य जीवन काजै इन ग्रंथन की रचना करी है। साथ ही पं. टोडरमल जी ने अपनी 'सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका टीका' में अर्थ संदृष्टि अधिकार अलग से सम्मिलित किया है। मात्र इतना ही नहीं जैन ग्रंथों के गहन गंभीर अध्ययन हेतु गणितीय ज्ञान की अपरिहार्यता के कारण ही अनेक महान जैनाचार्यों ने स्वतंत्र गणितीय ग्रंथों का भी सृजन किया है।" "परियम्यसुत्तं' (परिकर्म - सूत्र ) 7 सिद्धभूपद्धति टीका, वृहद् धारा परिकर्म' के उल्लेख क्रमशः धवला, उत्तरपुराण एवं त्रिलोकसार में पाये जाते हैं। ये अपने समय के अत्यंत महत्वपूर्ण गणितीय ग्रंथ थे जो आज उपलब्ध नहीं हैं। किन्तु आचार्य श्रीधर प्रणीत 'त्रिशतिका', आचार्य महावीर प्रणीत 'गणितसार', सिंहतिलक सूरि कृत 'गणित तिलक' टीका, ठक्करफेरू कृत 'गणितसार कौमुदी', राजादित्य कृत गणित विलास, महिमोदय कृत 'गणित साठसौ एवं हेमराज कृत 'गणितसार' हमें आज भी उपलब्ध हैं, 10 अर्हत् वचन, 15 (3), 2003 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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