Book Title: Arhat Vachan 2003 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 114
________________ कि भारत की भूमि ऐसी है कि जहाँ 10 - 15 हजार वर्ष पूर्व की परंपरा भी हृदय में जीवित है और पुराणों में भी जीवित है। लोगों की आस्था इन पर टिकी है। ऋषभदेव के अष्टापद से निर्वाण को किसी शोध की जरूरत नहीं है। वह परंपरा और पुराणों में जीवित है। वैसी ही बात महावीर जन्म और निर्वाण के बारे में सत्य है। कुण्डलपुर (नालन्दा) एवं पावापुरी को बदलने के प्रयास बेमानी है। जैन विश्वास और जैन पुराणों की अनदेखी कर सच्चाई हमारे हाथों में नहीं आएगी। महावीर के गर्भावतरण से लेकर निर्वाण तक की गाथा अलौकिक तो है किन्तु लौकिक आधार पर टिकी है। दिवाकर जी ने आमुख में पृष्ठ 20 पर एक अंग्रेज का वक्तव्य उद्धृत किया है कि 'मुझे महावीर का जीवन इसलिए प्रिय लगता है, कि वह मानव को परमात्मा बनने की शिक्षा देता है। उस में यह बात नहीं है कि महावीर की शिक्षा ईश्वर को महान ईश्वरत्व प्रदान करती है। यदि ऐसी बात नहीं होती तो मैं महावीर के जीवन चरित्र को स्पर्श भी नहीं करता, क्योंकि हम ईश्वर नहीं है, किन्तु मानव हैं।' मनुष्य के अध्ययन के योग्य महान विषय मानव ही है। दिवाकर जी संभवत: इसी नजरिये से महावीर के जीवन को हमारे सामने उजागर कर रहे हैं। सरल भाषा में आगमों के सहारे महावीर चरित्र के पृष्ठ इस प्रकार खुलते हैं मानो दिवाकर जी उन घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी थे। मैंने महावीर पर उपन्यास पढ़े हैं, शोध लेख पढ़ें हैं, अपनी-अपनी दृष्टि से महावीर का विश्लेषण पढ़ा है, किन्तु महावीर न उपन्यास का पात्र है और न जमीन में गड़ा कोई शिलालेख है और न कोई अजूबा है वह तो ऐसी आत्मा की यात्रा है जो वनवासी भील से लेकर कालजयी महावीर में प्रतिफलित हुई। यदि हमने इस यात्रा के संदर्भो को केवल आगम के बाहर ढूँढने का प्रयत्न किया तो निश्चित मानिए समस्त श्रमण परंपरा हमारे हाथ से फिसल जाएगी। महावीर कोई बहुत पुराने नहीं है। इतिहास ने उन्हें कई जगह पहचाना है। बौद्ध और वैदिक संदर्भो ने तो उनके बारे में बहुत कुछ जग जाहिर किया है किन्तु उन्होंने उसे अपने पूर्वाग्रहों से प्रेरित होकर भी लिखा है। अत: कोई भी निर्णय करने से पहले जैन संदर्भो को महत्व दिया जाना चाहिए। पृष्ठ 211 पर मध्यम मार्ग पर दिवाकरजी ने जैन दर्शन का नवनीत भेंट किया है 'यदि बिना संकोच के सत्य को समक्ष रखा जाय तो कहना होगा कि जैन आचार जैन विचार आदि में मध्यम पथ ही बताया है। अनेकान्त तत्व ज्ञान क्या है?' एक दूसरे पर आक्रमण करने वाली दृष्टियों के अतिरेक को दूर कर मध्यस्थ तत्व को स्थापित करना ही अनेकान्त है। संयम के क्षेत्र में भी अतिरेक वाद को अग्राह्य कहा है।' 'इन्द्रियों पर नियंत्रण भी हो जाय तथा शरीर की यात्रा भी बराबर होती जाय, इस सम्बन्ध में संतुलन आवश्यक है।' शक्तित: त्याग - तपसी' सोलहकारण भावनाओं में कहा गया है। शक्ति के अनुसार त्याग, शक्ति के अनुसार तप योग्य है। इस तत्व को न जानने के कारण पूर्व तथा पश्चिम के लेखक प्राय: महावीर भगवान के मार्ग को उग्र तपस्या का पथ कहते हुए बुद्ध द्वारा प्रदर्शित पथ को मध्यम मार्ग कहते हैं।' 'महाश्रमण महावीर' के प्रत्येक पृष्ठ पर जैन दर्शन के सिद्धांत और उनके व्यवहार में प्रयोग में आने वाली प्रक्रिया पर सुमेरूचंद्र दिवाकर ने पांडित्य पूर्ण आगमिक दृष्टि से तो विचार किया ही है किन्तु जीवन से उसका निकट सम्बन्ध स्थापित किया है। उनके धर्म - दिवाकर हृदय ने जैन दर्शन के सुमेरू पर चढ़कर सहज- शांत - प्रगतिशील जीवन की चांदनी सुलभ कराई है। महावीर के निर्वाण पर पंडितजी के शब्द ध्यान देने योग्य हैं - 'आज महावीर भगवान ने आध्यात्मिकता स्वाधीनता पाई' पृष्ठ 303 'यह पावापुरी महावीर की आध्यात्मिक समर भूमि हो गई, जहाँ उनका कर्मों के साथ घोर युद्ध हुआ। उन्होंने पहले पाप को पछाड़ा था, अब पुण्य प्रकृतियों को भी शुक्लध्यान रूप में अग्नि ने समाप्त कर दिया।' __ मेरा निश्चित विश्वास है जरा भी पढ़ने को प्रवृत्त व्यक्ति यदि इस पुस्तक को पढ़ेगा तो समाप्त कर ही मानसिक विश्राम कर सकेगा। ___इस सुन्दर पुस्तक को प्रस्तुत करने हेतु प्रकाशक दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान एवं तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ बधाई के पात्र हैं। पुस्तक के पुनर्प्रकाशन की प्रेरिका गणिनी ज्ञानमतीजी के चरणों में शतश: नमन। 112 अर्हत् वचन, 15 (3), 2003 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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