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अर्हतु वचन
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ARHAT VACANA
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मत - अभिमत
अर्हत् वचन, वर्ष 14 अंक 4 प्राप्त हुआ। यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि यह अंक शाकाहार एवं पत्रकारिता के पुरोधा, दृढ संकल्पी डॉ. नेमीचन्द्र जैन, इन्दौर की स्मृति में प्रकाशित किया गया है। डॉ नेमीचन्द्रजी ने शाकाहार के प्रचार प्रसार का मिशन जो प्रारम्भ किया था, अंतिम श्वास तक उसी मिशन को अंजाम देते रहे। उनकी स्मृति में अर्हत् वचन का विशेषांक कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ ने प्रकाशित कर उनके गौरव को बढ़ाया है।
अर्हत वचन पत्रिका शोध पत्रिकाओं में अपनी एक विशिष्ट पहचान बना चुकी है। पत्रिका में प्रकाशित समस्त आलेख स्तरीय सामग्री से समन्वित हैं। पत्रिका के उज्जवल भविष्य की सद्भावनाओं के साथ ब्र. संदीप 'सरल' संस्थापक अनेकान्त ज्ञान मन्दिर शोध संस्थान, बीना
I have read with interest the article Environment, Life Ethics and Jain Religion' by Dr. N. P. Jain, published in Oct. - Dec. 02 issue of Arhat Vacana.
The Suggestions and prescriptions are all very good. The problem is how to introduce and impliment them. The exploding population and rising consumerism putting ever increasing stress on shrinking natural resource many times more than their carrying capacity.
The quote from Mahatima Gandhi is not relevent in the present scenerio. If population continues to increaseexponentially, thwe physical environment and its constituents even vital ones, the soil, water and air will bot be able to cope with the increasing bare needs of exploiding numbers. Because of rising consumerism even the critaria of have needs is changing. The very index of development is more and more consumption.
Unless population and com nsumerism are controlled and limited within carrying capacity, there is no hope for environment, all its physical constituents, soil, water. air, minerals, forests, biodiversity including home sapiens.
S. M. Jain, Kota
आपके द्वारा भेजे गये 'अर्हत् वचन' के तीनों अंक मिले, एतदर्थ आभारी हूँ। पहले व दूसरे अंक में गणित को लेकर अच्छे आलेख संकलित हैं। समीक्षाएँ व आख्याएँ भी आपने दी हैं। आप जैन गणित को लेकर कुछ विद्वानों की टीम बनाकर अच्छा काम कर रहे हैं। मुझे लगता है कि "जैन - गणित के जो सूत्र हैं व जो आकलन पद्धति है, वह आकलन पद्धति अन्य गणितों से कैसे भिन्न हैं", इस विषय पर भी एक अच्छा आलेख आना चाहिये।
इसी सन्दर्भ में उल्लखित विचार या पद्धति को हम जैन गणित के विचार पद्धति का आधार मानें ? यह बात भी सामने रखी जाना चाहिये। जैन गणित के आकलन के जो ढंग हैं उनका आज के गणित के अध्यापन में कैसे प्रयोग किया जाये व अध्ययन किस किस रूप में, क्या क्या भूमिका निभा सकता है ?
इस दिशा में भी कुछ संयुक्त यत्न करना चाहिये महावीर की परम्परा में गणित सम्बन्धी आलेख, प्रो. गुप्त के आलेखों ने मुझे कई ऐसी जानकारियाँ दी, जिनसे मैं
प्रो. आर. सी. गुप्त का पहले अंक का आलेख, आपका (श्रीमती) पद्मावथम्मा, श्री दिपक जाधव व प्रो. राधाचरण अभिभूत हूँ।
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अर्हत् वचन जहाँ एक ओर शुद्ध शोध आलेखों को प्रकाशित कर रहा है, वहीं समाज में वैज्ञानिक व स्तरीय विचारों को भी समृद्ध कर रहा है आपको बधाई।
अर्हत् वचन, 15 (3), 2003
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■ वृषभ प्रसाद जैन प्रोफेसर एवं निदेशक महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, लखनऊ
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