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पुस्तक समीक्षा
अर्हत वचन । (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर)
भगवान महावीर का बुनियादी चिन्तन
एक श्रेष्ठ लघु कृति
- सरोज जैन*
नाम
: भगवान महावीर का बुनियादी चिन्तन लेखक
: डॉ. जयकुमार 'जलज प्रकाशक
मध्यप्रदेश साहित्य परिषद, भोपाल प्रकाशन वर्ष/संस्करण : 2002, द्वितीय पृष्ठ संख्या
: 24 मूल्य
: रु. 13.50 भगवान महावीर समीक्षक
सरोज जैन, अध्यक्ष-हिन्दी विभाग, शास. बुनियादी चिंतन
कन्या महाविद्यालय, बीना (सागर) 'भगवान महावीर का बुनियादी चिन्तन' डॉ. जयकुमार जलज द्वारा लिखित चिंतन प्रधान पुस्तक है, जिसमें उन्होंने भगवान महावीर के उपदेशों/सिद्धान्तों
का सरल भाषा में विवेचन किया है। प्रस्तुत पुस्तक भगवान महावीर के सिद्धान्तों को समझने के अनेक आयाम हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है। भगवान की तपस्या ने अनेक ऐसे बुनियादी सत्य हमारे समक्ष प्रस्तुत किये हैं जिनको समझने के लिये आइंस्टीन जैसे वैज्ञानिकों, बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों ने अपना सम्पूर्ण जीवन त्याग दिया। उन्होंने बताया कि प्रत्येक पदार्थ/वस्तु/द्रव्य महान हैं। इसलिये चाहे वह जीव हो या अजीव उसके साथ हमें सम्मान से पेश आना चाहिये। महावीर सर्वज्ञ थे। डॉ. जलज के अनुसार - 'उनकी सर्वज्ञता का अर्थ है कि उसे जान गये थे जिसे जानने के बाद और कुछ जानना बाकी नहीं रह जाता। इस ज्ञान से वे वस्तुओं के आपसी व्यवहार के उन मानकों को तय कर सके जिनसे मानवी व्यक्तित्व के विकास का द्वारा खुलता है। इसी ज्ञान से वे अनेकान्त, स्याद्वाद, अहिंसा, अपपरिग्रह आदि सत्यों को देख सके और इसी से मानव आचरण में सहिष्णुता एवं पर - सम्मान की भावना को रेखांकित कर सके।
वस्तु स्वरूप संबंधी महावीर की अवधारणा, जो उनके शिष्य आचार्यों द्वारा विवेचित की गई, का भी सार लेखक द्वारा प्रस्तुत पुस्तक के अन्तर्गत किया गया है। वस्तु की अनेक गुणधर्मिता, उनका सापेक्षतावाद का सिद्धान्त, वस्तु का उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त होना एवं उसकी स्वतंत्र व विराट् सत्ता का विवेचन भी पुस्तक में देखने को मिलता है। भगवान महावीर के इन सिद्धान्तों ने आइंस्टीन को एक दिशा दी, महात्मा गांधी को गति प्रदान की। डॉ. जलज के अनुसार - 'अनेक गुण, अनंत धर्म, उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य युक्त स्वतंत्र स्वावलम्बी और विराट् जड़ - चेतन वस्तुओं के साथ हमारा सलूक क्या हो, यह महावीर की बुनियादी चिंता और उनके दर्शन का सार है।'
भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित उपादान और निमित्त की विवेचना लेखक ने बड़े ही स्पष्ट और सारगर्भित रूप में की है। महावीर के अनुसार वस्तु स्वयं अपने विकास या हास का मूल कारण या आधार साम्रगी या उपादान है। हर वस्तु खुद अपना उपादान है। सबको अपने पाँवों चलना है। कोई किसी दूसरे के लिये नहीं चल सकता अर्थात् कोई हमारा कितना ही बड़ा मददगार क्यों न हो, वह हमारे लिये उपादान नहीं बन सकता। दूसरों के लिये उपादान बनने की कोशिश एक प्रकार की हिंसा है। लेखक के अनुसार - 'आज हमारे घरों, संस्थानों, दफ्तरों में जो अशांति और विघटन है, उसका सबसे बड़ा कारण यही हिंसा है। मनुष्य अपने लिये उपादान और दूसरों के लिये निमित्त है।' प्रस्तुत पुस्तक में इस सिद्धान्त को काव्यमयी शैली में विवेचित करता हुआ लेखक कहता है -
अर्हत् वचन, 15 (3), 2003
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