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परिचय (सन्दर्भ - हीरक जयंती)
अर्हत् वचन (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर)
प्रगतिवादी जैन अध्येता डॉ. नन्दलाल जैन
- अनिलकुमार जैन*
आज जैन समाज में ऐसे विद्वान बहुत कम हैं जिन्होंने दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों आम्नायों के ग्रन्थों का समान रूप से अध्ययन तो किया है ही, साथ ही जैनेतर ग्रन्थों की समुचित जानकारी भी है तथा जिन्हें हिन्दी और अंग्रेजी भाषा पर तो समान अधिकार है ही साथ में संस्कृत भाषा का भी अच्छा ज्ञान है। अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त डॉ. नन्दलाल जैन एक ऐसे ही व्यक्तित्व हैं। लेकिन वे परम्परावादी विद्वानों से कुछ हटकर भी हैं क्योंकि कई मामलों में उनका अपना स्वतन्त्र चिन्तन एवं
विचार हैं। चूंकि वे मूलत: विज्ञान से जुड़े हुए हैं, अत: उनकी विचारधारा में विज्ञान परक कई तथ्य भी सम्मिलित हुए हैं। इन सब कारणों से ही उन्हें परम्परावादी विद्वान कहने के बजाय प्रगतिवादी जैन अध्येता कहना ही अधिक उचित होगा।
डॉ. जैन अपने जीवन के अब तक 75 वसन्त देख चुके हैं। उनका जन्म 16 अप्रैल 1928 को मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले में हुआ था। उन्होंने कोडरमा तथा वाराणसी में रहकर जैन धर्म और दर्शन में शास्त्री एवं आचार्य की उपाधियाँ प्राप्त की। तत्पश्चात् उन्होंने रसायन विज्ञान में एम.एस-सी. की और ब्रिटेन से पी एच.डी. एवं अमेरिका से पोस्ट- डॉक्टरल प्रशिक्षण प्राप्त किया। वे मध्यप्रदेश शासन के उच्च शिक्षा विभाग में रसायन के व्याख्याता और आचार्य पद पर कार्य करते हए सन 1988 को सेवानिवृत्त हुए। इसके बाद से आप विश्वविद्यालय अनुदान आयोग तथा भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, दिल्ली की जैन दर्शन और विज्ञान सम्बन्धी तीन पुस्तकों का लेखन एवं अनुवाद योजनाओं में मानद 'परियोजना अन्वेषक' के रूप में कार्य करते रहे हैं।
धर्म और विज्ञान इनका रोचक विषय रहा है। इनका मानना है कि जैन दर्शन पूर्ण वैज्ञानिक है तथा यह वैज्ञानिक मनोवृत्ति को विकसित भी करता है। उन्होंने अपने इस पक्ष को अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सशक्त रूप से प्रस्तुत किया है। उन्होंने 'अन्तर्राष्ट्रीय जीव छेदन विरोधी परिषद', लन्दन (1962), 'असेम्बली ऑफ वर्ल्ड रिलीजन', सांफ्रांसिस्को (1988), 'विश्व धर्म संसद', शिकागो (1993), 'अन्त: विज्ञान इतिहास कांग्रेस', जर्मनी (1989), स्पेन (1993) तथा बेलिज्यम (1997) में जैन धर्म और दर्शन से सम्बन्धित शोध पत्र पढ़े हैं। इनके अतिरिक्त उन्होंने विदेश के अनेक जैन सेन्टरों में भी भाषण दिये हैं।
डॉ. जैन के अब तक सौ से अधिक शोधपत्र व लेख राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं तथा बीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी प्रमुख प्रकाशित पुस्तकों में 'जैन इन्टरनेशनल', अहमदाबाद से प्रकाशित 'Glossary ofJaina Terms' (1995), पार्श्वनाथ विद्यापीठ. वाराणसी से प्रकाशित "Scientific Contents in Prakrta canons' (1996), Jaina Karmology' (1998), 'Biology in Jaina Treatise on Reals' (1999) तथा The Jaina World of Non-living' हैं। इनमें
अर्हत् वचन, 15 (3), 2003
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