Book Title: Arhat Vachan 2003 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 73
________________ अर्हत्व कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर प्रस्तावना वर्ष 15, अंक - 3, 2003, 7175 संस्कृति संरक्षण, सामाजिक विकास एवं पांडुलिपियाँ ■ गणेश कावडिया ** हमारे प्राचीन आचार्यों ने मोक्ष मार्ग के लिये छः बाह्य ( अनशन, अवमोदार्य, वृत्ति परिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्त शय्यासन, काय क्लेश तथा छः अन्तरंग ( प्रायश्चित, विनय, स्वाध्याय, वैयावृत्ति, व्युत्सर्ग, ध्यान) तपों का मार्ग बताया है।' इनमें स्वाध्याय को भी एक अन्तरंग तप माना है। स्वाध्याय तप के अन्तर्गत वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा (चिन्तन), पाठ और धर्मोपदेश को सम्मिलित किया गया है। इस प्रकार नित्य स्वाध्याय तप की आराधना को मोक्ष का मार्ग बताया है। जीवन के अन्तरंग निखार के लिये इसे अति आवश्यक तप कहा गया है। यदि स्वाध्याय आवश्यक है तो उसके लिये शास्त्रों की रचना भी आवश्यक थी । इसीलिये हमारे आचार्यों ने मानव के आध्यात्मिक विकास के लिये शास्त्रों का लेखन किया। इन शास्त्रों के मूलरूप को पांडुलिपि कहा जाता है तथा इसकी विभिन्न प्रतियों को प्रतिलिपि कहा जाता है। इन्हीं पांडुलिपियों में हमारी संस्कृति की व्यापक झलक देखने को मिलती है। अतः इनके संरक्षण की आवश्यकता है। इस प्रकार स्वाध्याय के लिये शास्त्र तैयार किये और ये मानव जीवन में कल्याण का कार्य कर सकें इसके लिये स्वाध्याय तप को आवश्यक बताया। हम कितनी महान संस्कृति के लोग है जिसमें स्वाध्याय करने को भी तप की आराधना कहा गया है। स्वाध्याय कर्म मोक्ष मार्ग के लिये न केवल तप की आवश्यकता है बल्कि गृहस्थ जीवन के लिये 6 दैनिक कर्म (देव पूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, इन्द्रिय संयम, तप, दान) भी आवश्यक बताये हैं। 2 इन 6 कर्मों में भी तीसरा कर्म स्वाध्याय का है। अतः आवश्यक कर्मों के उपादान के लिये भी शास्त्रों की आवश्यकता हुई और इसीलिये शास्त्र, साहित्य आदि की रचना की गई। शास्त्रों की उपयोगिता तथा निरन्तर आपूर्ति बनी रहे इसके लिये गृहस्थ के लिये जिन चार प्रकार के दानों की चर्चा की गई है उसमें शास्त्रों के दान का भी उल्लेख मिलता है। इस प्रकार हमारे श्रेष्ठ आचार्यों ने शास्त्रों तथा स्वाध्याय को तप, कर्म तथा दान से जोड़कर इसे न केवल महत्वपूर्ण बना दिया बल्कि उसे सतत् जारी रहने वाली क्रिया बना दिया। हमारी संस्कृति में इन पांडुलिपियों का बहुत ही महत्व है। हमारे आचार्यों ने, श्रेष्ठियों ने, श्रावकों तथा सन्तों ने इन पांडुलिपियों से हमारे ज्ञान के भंडार में वृद्धि की है। इनमें कई मंत्रों के रूप में, कई चित्र कथाओं के रूप में, स्तोत्रों के रूप में तथा कुछ सूत्रों के रूप में भी उपलब्ध है। इनकी आराधना से जीवन को निखारा जा सकता है। कई कथा चित्रों को बाद में लिपिबद्ध किया गया होगा। इससे इनकी व्याख्याओं में विभिन्नता आना स्वाभाविक है। अतः इस प्रकार के कार्यों में उच्च कोटि का सम्पादन भी आवश्यक है। * * कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ व्याख्यानमाला के अन्तर्गत दिनांक 5.6.03 को प्रदत्त व्याख्यान ** अधिष्ठाता समाज विज्ञान संकाय, प्राध्यापक अर्थशास्त्र, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर निवास ए-3, प्राध्यापक निवास, खंडवा रोड, इन्दौर-452017 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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