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गहरी हैं कि जरा सी तो मैंने कैमरे में बांध के चरण चिह्न भी हैं।
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रंगोली बिखेरने पर वे अपने आप बोलने लगती हैं कुछेक को लिया। सभी बहुत स्पष्ट हैं। बीच बीच में समाधिस्थ 'जिनश्रमण' कुछेक तो पास में निर्मित मन्दिरों की नीवों तले दबकर झांक रहे हैं। कुछेक पर अनेक बार चरण चिह्न पुनः बना दिये गये। ऐसे चरणों के पास सर्वप्राचीन लिपि संधव लिपि ही है। बाद की लिपि प्राचीन कन्नड़
या तमिल है जिसे पढ़ा नहीं जा सका है। और फिर हैं उत्तरकालीन शिलालेख जिनमें से कुछ पढ़े जाकर सुरक्षित कर दिये गये हैं। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि ये सारे चरण और चित्रलिपि उस अज्ञात 'पुरा - इतिहास' का प्रमाण हैं जो कटवप्र अथवा उससे भी पूर्व काल में जानी जाती रही, इस पहाड़ी पर लिखा गया। अधिकांश चरण पूर्वमुखी अथवा उत्तरमुखी हैं मात्र कुछ ही पश्चिम और दक्षिणमुखी हैं जो दर्शात हैं कि उनके काल में उन दिशाओं में स्थित मानव बस्तियों के जिन चैत्यालय रहे होंगे एक सल्लेखी दिगंबरी ही थे।
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दर्शाता है कि
चरण के साथ पुरुष लिंग भी उकरित है जो चतुर्दिकावर्णि के संकेत उन सल्लेखियों का जिन श्रमणत्व सिद्ध कर देते हैं। इस प्रकार इस पर्वत के पुरावशेष कटवप्र को प्राच्य भारत की सर्वप्राचीन सैंधव संस्कृति का स्वर्ण कलश और भूलाबिसरा अति महत्वपूर्ण केन्द्र स्थापित कराते हैं जिसके अनुसार हड़प्पा जैसी ही पुरा संस्कृति दक्षिण भारत में भी सुरक्षित और पल्लवित रही।
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* C/o. श्री राजकुमार मलैया मलैया ट्रेडर्स, भगवानगंज, स्टेशन रोड़, सागर
अर्हत् वचन, 15 (3), 2003
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