Book Title: Arhat Vachan 2003 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 90
________________ में सुधार हो जाता है। भू-जल में वृद्धि, दूषित जल की सफाई, कम खर्च से अधिक पैदावार एवं गुणवत्ता वाली उपज मिलती है। 5. जीवाणु वाली खादों से सुरक्षा मिलती है, इस खाद में पौध संवर्द्धन के लिये प्राकृतिक इन्जाइम, प्रोटीन, विटामिन एवं खनिज उपलब्ध होते हैं। 6. जैविक खाद में सूखा, पाला, हिमपात एवं विपरीत मौसम को सहन करने की शक्ति होती है। जैविक खाद से फल, फूल, औषधि एवं सब्जी फसलों की ताजगी अधिक समय तक बनी रहती है। बीमारी के खिलाफ प्रतिरोधक शक्ति रहती है। 7. नील, हरितकाई, 10 किलोग्राम के मान से उपयोग करने पर 15 से 30 किलोग्राम वायुमण्डलीय नत्रजन का स्थिरीकरण होता है। हरितकाई से आक्सिल, जिब्रेलिक एसिड प्राप्त होता है जो फसल की वृद्धि के लिये आवश्यक है। जैविक कीटनाशक विभिन्न उत्पादों गाय का मूत्र, नीम तेल, नीम की पत्ती, नीम का पावडर, मिर्च, लहसुन, प्याज, अलसी का तेल, साबुन, राख, नीलाथोथा, तम्बाकू या जला हुआ डीजल, मिट्टी का तेल कीटनाशक के रूप में उपयोग करना चाहिये । जल शक्ति, सौर्य ऊर्जा, सौरीकरण (गैंदा, सूर्यमुखी, सोयाबीन) फसल चक्र अपनाकर एवं प्लास्टिक शीट का उपयोग कर कीटों को रोका जा सकता है। जैविक कीटनाशक से लाभ 1. यह छिड़काव, बुरकाव करने वाले व्यक्ति, जानवरों के लिये सुरक्षित है। यह अखाद्य होकर भी हानिरहित है, इनको घर पर ही सरलता से तैयार किया जा सकता है, यह कम खर्चीले हैं। 2. ये आसानी से इधर-उधर ले जाये जा सकते हैं, इनके उपयोग से स्वास्थ्य के लिये कोई हानि नहीं होती। यह किसी लाभदायक प्रजाति को पूर्णतः नष्ट या लुप्त नहीं करते, इससे प्रकृति का संतुलन बना रहता है। 3. ये हानि रहित हैं, वातावरण प्रदूषित होने का खतरा नहीं रहता । 4. अन्तरवर्तीय फसलें बोकर भी जैविक खाद और जैविक नियंत्रण का लाभ किसानों को मिल सकता है। - अत: कृषकों को अधिक उत्पादन लेने के लिये सलाह दी जाती है कि वह 25 नीम के पेड़ अवश्य लगायें, स्वयं के बीज तैयार करें, स्वयं का खाद नाडेप विधि से या जीवाणु विधि से तैयार करें। स्वयं की दवा का उपयोग करें एवं 10 प्रतिशत जगह में फलदार पेड़ पौधे लगायें। प्राप्त 20.04.03 88 Jain Education International * वरिष्ठ उद्यान विकास अधिकारी जीवन सदन, सर्किट हाउस के पास, शिवपुरी- 473551 (म.प्र.) For Private & Personal Use Only अर्हत् वचन, 15 (3), 2003 www.jainelibrary.org

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