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मार्गणा, जीव समास के माध्यम से अत्यन्त वैज्ञानिक/गणितीय पद्धति से किया गया है।
गणित का आविष्कार भारत में हुआ परन्तु जैन धर्म में जो अलौकिक गणित में अनंत, असंख्यात, पल्य, सागर आदि का वर्णन है ऐसा विधिवत् वर्णन अन्य धर्मों में व आधुनिक विज्ञान में भी नहीं है। अलौकिक गणित में जो चिह्न/उपमान आदि का वर्णन किया गया है, वह भी अन्यत्र कहीं नहीं है।
शुद्ध परमाणु की एवं शुद्ध जीव की गति एवं मृत्यु के बाद जीव की गति की मंदता, मध्यमता, तीव्रता का जो वर्णन जैनधर्म में पाया जाता है वह अन्यत्र नहीं है। यहाँ तक की आइन्स्टीन ने जो प्रकाश की परम गति को एक सेकेण्ड में 3 लाख कि.मी. माना है, वह भी दोषपूर्ण है। अभी तक विज्ञान अविभाज्य परमाणु की खोज नहीं कर पाया है, परन्तु इसका वर्णन जैनधर्म में है। शुद्ध परमाणु में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और उसकी गति आदि का वर्णन जैसा जैनधर्म में वर्णित है वैसा विज्ञान में नहीं है।
विज्ञान में वनस्पति को तो जीव रूप में सिद्ध कर लिया है और स्वीकार कर लिया है परन्तु पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वायुकायिक को जीवरूप में सिद्ध नहीं कर पाया
प्राय: प्रत्येक धर्म तथा मनोविज्ञान अच्छे-बुरे भाव एवं कर्म के फल को तो मानते हैं परन्तु जिस प्रकार जैनधर्म में माना है कि योग (मन-वचन-काय का परिस्पंदन) उपयोग (विभिन्न भावनाएँ एवं आवेश) से अनंतानंत भौतिक कर्म परमाणु आकर्षित होकर आत्मा के प्रत्येक असंख्यात प्रदेशों में बँधते हैं, स्थिर रहते हैं एवं समय प्राप्त होने पर फल देते हैं, ऐसा गणितीय/वैज्ञानिक वर्णन नहीं है। जैनधर्म का सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्त अनेकान्तवाद (सापेक्षवाद) है। इस सिद्धान्त को व्यावहारिक जीवन में तो सब कोई अपनाते हैं लेकिन किसी भी धर्म - दर्शन में इसका विधिवत् वर्णन नहीं पाया जाता है। वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने इस सिद्धान्त को माना है परन्तु आइन्स्टीन का सापेक्षवाद भी जैनधर्म के अनेकान्तवाद सिद्धान्त के बराबर व्यापक/सार्वभौम नहीं है।
वनस्पति से लेकर पशु-पक्षी - मनुष्य में जो आकार - प्रकार, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, भाव, क्रिया - प्रतिक्रिया, संवेदना, ज्ञान, अनुभूति आदि होती है उसके कार्य - कारण संबंधों का संपूर्ण ज्ञान अन्यत्र कहीं नहीं है।
जैनधर्म में जैसे गणितीय/वैज्ञानिक दृष्टि से कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान, केवलज्ञान का वर्णन पाया जाता है वैसा वर्णन अन्य धर्मों में यहाँ तक कि विज्ञान में भी नहीं है।
जीव के पूर्वोत्तर अनंत भवों का वर्णन जैसा जैनधर्म में है वैसा वर्णन अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। जीव के जो औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस, कार्माण आदि 5 शरीरों का विधिवत् वैज्ञानिक वर्णन है वह भी अन्यत्र नहीं है।
संसारी जीव ही जिस प्रकार क्रमविकास करता हुआ भगवान बनता है ऐसा विधिवत् क्रमविकास का वर्णन अन्यत्र नहीं मिलता है। जब कोई साधक अरहन्त बनता है उस समय समवशरण की जो रचना होती है उस समय अरहन्त 718 भाषाओं में उपदेश देते हैं। उनके हजारों पशु-पक्षी शिष्य होते हैं। उनका शरीर स्फटिक के समान पारदर्शी होता है। आकाश में गमन होता है। उनके प्रभाव से षट् ऋतुओं के फल-फूल एक साथ फलते-फूलते हैं, दुर्भिक्ष, युद्ध, महामारी आदि नहीं होता है, ऐसा वर्णन अन्यत्र नहीं पाया जाता है। प्रलय का जिस प्रकार व्यवस्थित वर्णन जैनधर्म में है वैसा अन्यत्र नहीं है।
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अर्हत् वचन, 15 (3), 2003
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