Book Title: Arhat Vachan 2003 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 62
________________ बखान कर सकें ताकि हमारे राष्ट्र में रह रहे विभिन्न समुदायों और जातियों के लोग स्वयं पर गर्व करने लगें कि राष्ट्रीय अस्मिता को संवारने में मात्र एक जाति अथवा धर्म के पालन कर्ता का ही विनियोग नहीं रहा है, अपितु समस्त जातियों के कर्णधारों ने भारतीय राष्ट्रीय स्वरूप को निहाल किया है। भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में सूर्यवंशशिरोमणि श्री सुहेलदेव जैन नरेश को कदापि नहीं भुलाया जा सकता है। इतिहास में सुहेलदेव को सुहृदध्वज के नाम से भी अभिहित किया गया है। सुहेलदेव वास्तव में गोण्डा के थे। उन्हें 'वैश्य' और 'जैन' वर्णित किया गया है । गजेटियर जिला बहराइच में लिखा है कि 'राजा सुहेलदेव राय जैनी राजा थे। इनकी राजधानी श्रावस्तीपुरी थी।' सुहेलदेव के जैन होने की पुष्टि जर्नल एशियाटिक सोसायटी सन् 1900 ई. के प्रथम पृष्ठ पर छपा मि. स्मिथ का एक लेख है जिसमें लिखा है कि 'राजा सुहेलदेव राय जैन थे। सुहेलदेव अहिंसा धर्म को जानते थे तथा राष्ट्र धर्म का पालन करना अनिवार्य समझते थे।' Ed श्री सुहेलबावनी - श्रावस्ती जैन नरेशराजा सुहेलदेव के ऐतिहासिक चरित्र को आधार बनाकर स्व. पं. गुरुसहाय दीक्षित 'द्विजदीन' ने श्री सुहेलबावनी की रचना कर भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में श्रावस्ती नरेश राजा सुहेलदेव जैन के महती योगदान को निरूपित किया है। 'बावनी' बावन पदों के संकलन को कहते हैं। स्वयं श्री द्विजदीन स्कूल में हिन्दी के शिक्षक थे अतएव हिन्दी काव्य लेखन की परम्पराओं और धाराओं से उनका समीप का परिचय था । यही कारण है। कि द्विजदीन ने श्रेष्ठ वीर श्री सुहेलदेव के चरित्र को आधार बनाकर श्री सुहेल बावनी की रचना की । हिन्दी काव्य जगत में इतिहास के सद्वंशजात और धीरोदात्त चरित्र वाले नायकों को लेकर काव्य रचने की प्राचीन परम्परा रही है। हिन्दी के रासो साहित्य में जहाँ ऐतिहासिक महत्व के चरित्रों को आधार बनाया गया है, वहाँ थोड़ा बहुत काव्य की भाषा के गढ़ने का कार्य भी हुआ है। इसके अतिरिक्त रासो काव्य परम्परा तत्कालीन अभिरूचियों, विश्वासों तथा काव्य रूचियों के आधार पर इतिहास और कल्पना का सुन्दर समन्वय प्रस्तुत करती है। हिन्दी में वीरगाथा काल के नामकरण का आधार उपस्थित करने में रासो साहित्य का बड़ा महत्व है। हिन्दी में दलपत विजय का 'खुमान रासो', नरपति का 'बीसलदेव रासो', चन्दर वरदाई का 'पृथ्वीराज रासो', जगनिक का 'परमाल रासो', नल्लसिंह भट्ट का 'विजयपाल रासो' और सारंगधर का 'हमीर रासो' इस बात के प्रमाण हैं कि रासो साहित्य की रचनाओं में किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं मिलता है अपितु धर्म, नीति, श्रृंगार तथा वीर सब प्रकार की रचना दोहों में मिलती है तथापि इस अनिर्दिष्ट लोक प्रवृत्ति के उपरान्त जब से मुसलमानों के आक्रमणों का आरम्भ होता है तब से हिन्दी साहित्य की प्रवृत्ति एक विशेष रूप में बंधती हुई पाते हैं। हिन्दी काव्य में पराक्रमपूर्ण चरित्रों अथवा गाथाओं का वर्णन हमलावर मुसलमान शासकों के साथ भारतीय या देशी राजाओं की टकराहट का परिणाम है। Jain Education International 'श्री सुहेलदेव बावनी' के रचयिता पं. द्विजदीन ने जिस चरित्र नायक की स्थापना प्रस्तुत स्फुट काव्य में की है उसका ऐतिहासिक आधार भी मिलता है। कनिंघम आर्कोलोजिकल सर्वे रिपोर्ट ऑफ इण्डिया व स्मिथ जर्नल रायल एशियाटिक सोसायटी जैन नृपति श्रावस्ती नरेश श्री सुहेलदेव के संबंध में लिखा मिलता है कि जब भारत में मुसलमानों ने आक्रमण किया और वे उत्तर भारत में घुसने लगे तो उनका सामना जैन नरेश श्री सुहेलदेव ने 60 अर्हत् वचन, 15 (3), 2003 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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