Book Title: Arhat Vachan 2003 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 65
________________ सालार शत्रुओं को हराता हुआ आगे बढ़ता आया था उसको बहराइच के समीप पहुँचने पर वीर 'सुहेलदेव के सामने लोहे के चने चबाने पड़े। वीर सुहेलदेव ने रण क्षेत्र में आते ही मुसलमानों के छक्के छुड़ा दिये। सैयद सालार को पराभूत होते देख उसकी मदद के लिये शीघ्र ही महोबा से हसन, गोपामऊ से अजीजुद्दीन, लखनऊ से मलिक आदम और कड़ा मानिकपुर से मालिक फैज सदल बल पहुँचे थे। वीर सुहेलदेव इस शौर्य और पराक्रम से लड़े कि एक भी मुसलमान जीवित न बचा। अब्दुर्रहमान चिश्ती ने 'मीराते मसऊदी' नामक पुस्तक में, जो कि जहाँगीर बादशाह के समय लिखी गई है, वर्णन करते हुए लिखा है कि सैयद सालार मसऊद गाजी की सेना 17 शावान सन् 425 हिजरी (ई. सन् 1033 ) को बहराइच पहुँची । कौड़िया के निकट हिन्दुओं को हराया। इसके उपरान्त राजा सुहेलदेव राय ने युद्ध संचालन अपने हाथ में लेकर उनके पड़ाव को बहराइच में आ घेरा । यहाँ सैयद सालार मसऊन गांजी 128 रज्जब सन् 426 हिजरी (ई. सन् 1034 ) में अपनी सारी सेना सहित शहीद हो गये । इतिहास के परिदृश्यों के साथ कल्पना की तुक मिलाकर न जाने कितने ही ऐतिहासिक चरित्रों का अवतार हिन्दी काव्य साहित्य में समय- समय पर हुआ है परन्तु यह अपवाद ही है कि स्वर्गीय श्री पं. गुरुसहाय दीक्षित द्विजदीन ने अपनी रचना सुहेलबावनी में न केवल जैन राजा सुहेलदेव की प्रामाणिकता के साथ विरदावली अंकित की है अपितु प्रस्तुत रचना को कल्पना के स्वांग से अधिकांश स्थलों पर बचाया भी है। जब भी कोई ऐतिहासिक महत्व की कृति सामने आती है, तब उस कृति को लेकर प्रथमतः विश्वसनीयता का प्रश्न खड़ा होता है। दूसरे स्तर के प्रश्न भाषा, शिल्प और सम्प्रेषणीयता को लेकर उठते हैं। एक कृति की समालोचना केवल कथ्य की प्रस्तुति भर से नहीं हो जाती अपितु कथ्य में घटनाओं को यदि उपस्थित नहीं किया जाता है तो ऐसी दशा में बना संवारा गया कथानक भ्रम को पैदा करने वाला प्रतीत होने लगता है । कवि श्री द्विजदीन ने अपनी श्री सुहेलबावनी को रचने में न तो अपने शिक्षक होने का पण्डित आगे आने दिया, न सुहेलदेव की वीरता का बखान करने में भावुक हृदय की महिमा बघारी । काव्य सर्जन हेतु नियोजित मूल्यों का अवलम्ब लेकर कवि द्विजदीन ने श्री सुहेलबावनी के कथानक को निरूपित किया है। प्रायः ग्यारहवीं सदी से लेकर चौदहवीं सदी तक की गणना में आने वाले वीर पुरुषों के चारित्रिक बखानों की भाषा हिन्दी की उत्पत्ति काल की भाषा रही है। अगर हम हिन्दी के मूर्धन्य साहित्यकार आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी से सहमत होते हैं तो इस अवधि को 'बीजवपन काल' का नाम दे सकते हैं। अतः इस समयावधि के अन्तर्गत जो भी ऐतिहासिक चरित्र रचनाकारों की सर्जनात्मक शक्ति के रूप में आते हैं उन चरित्रों के निर्वहन की भाषा का स्वरूप प्रायः एक जैसा होता है, फिर भी, कवि द्विजदीन ने वैसे तो श्री सुहेलबावनी की भाषा का संयोग हिन्दी के वीर कवि भूषण की भाषा के साथ बहुतायत में कराया है फिर भी उसमें अधिकांश आधुनिक हिन्दी में प्रचलित खड़ी बोली के शब्दों को उतारकर श्री सुहेलबावनी को सहज पठनीय बना दिया है। कवि श्री द्विजदीन ने लोक परम्परा में सब कुछ डूब जाने के अर्थ में 'हरि ओम्' के प्रचलित मुहावरों को 'श्लेष अलंकार' की छटा पिरोते हुए भाषा में जिस अद्भुत शिल्प को गढ़ लिया है वह स्तुत्य है - कवि द्विजदीन देश डूबा था विलासिता में, भूल चुका नाम राम कृष्ण हरि ओम् था। अर्हत् वचन, 15 (3), 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only 63 www.jainelibrary.org

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