Book Title: Arhat Vachan 2003 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 40
________________ ज्ञानी को भौतिक लाभ ज्ञानी को संसारिक उपलब्धियों के सन्दर्भ में आचार्यों के स्थान - स्थान पर ऐसे कथन हैं कि ऐसे भेदज्ञानी के पुण्योदय से कठिन कार्य भी सुलभ हो जाते हैं। धन, संपत्ति, विजय, वैभव, यश, महाराजा, महेन्द्र जैसी ऊंची पदवियाँ भी सुलभ होती हैं। 16 प्रथमानुयोग के सभी ग्रंथ इस तथ्य के साक्षी हैं। आधुनिक विद्वानों में दीपक चोपड़ा यह दावा करते हैं कि जिसे फल प्राप्ति की आसक्ति नहीं है व जो अपने को एवं अन्य प्राणियों को बिगाड़ - सुधार रहित अविनाशी आत्मा की तरह देखते हैं उनकी मनोकामनाओं की पूर्ति बहुत सरलता से होती रहती है - इस तथ्य को विस्तार से उन्होंने The seven spiritual Laws of Success. पुस्तक में समझाया है। 17 आत्मज्ञानी को आत्मिक लाभ के साथ - साथ भौतिक लाभ क्यों होते हैं? पुण्य क्यों बंधता है? इस तरह के मौलिक प्रश्नों के उत्तर देना उसी तरह कठिन है कि गुरुत्वाकर्षण क्यों होता है या धन विद्युत एवं ऋण विद्युत के बीच आकर्षण क्यों होता है। फिर भी हम उदाहरणों से कुछ मर्म निकाल सकते हैं। जैसे कोई व्यक्ति एक पैसा भी किसी का चुराने की भावना न रखे तो उसको कोई अपार धन संभालने के लिए दे सकता है। आत्मज्ञानी अपनी आत्मा के अतिरिक्त एक कण को भी अपना नहीं मानता है तो प्रकृति की वस्तु व्यवस्था से ऐसी स्थितियां बनती हैं कि विपुल समृद्धियां उसके माध्यम से बहती हैं। जिसको अपना सर्वस्व लूटते नजर आता है वे दूसरों का सर्वस्व लूटना चाहते हैं या येन-केन-प्रकारेण अपनी रक्षा करना चाहते हैं। इसके विपरीत आत्मज्ञानी को कर्म-सिद्धांत में विश्वास होता है व सांसारिक संयोगों में लाभ - हानि नजर नहीं आने के कारण पाप में प्रवृत्ति कम होती रहती है। इससे आत्मज्ञानी की ऊर्जा का क्षय कम होता है जिससे अच्छे विचार होते हैं, अच्छे निर्णय होते हैं, उत्तम स्वास्थ्य होता है, उत्तम मित्र व रिश्ते बनते हैं। निराशा न होने के कारण ज्ञानी को आलस्य भी कम होते हैं। ये सभी घटक एवं पुण्योदय भौतिक उपलब्धियों को आकृष्ट करते हैं। एक अनमोल रत्न इस लेख का समापन आचार्य कुन्दकुन्द के एक अनमोल रत्न द्वारा करना चाहता हूं। यह सूत्र वाक्य न केवल रोगियों के लिए उपयोगी है अपितु आज की भागदौड़ में शामिल सांसारिक प्राणियों की किसी भी तरह की मन की अशांति को दूर करने के लिए परम अमृत है। जहां अन्य नुस्खे असफल हो जाते हैं वहां भी यह कार्य करता है। एक शिष्य ने आचार्य से प्रश्न किया कि अशांति कैसे दूर हो तो उसके उत्तर में आचार्य कुंदकुंद ने समयसार में यह कहा - मैं एक शुद्ध ममत्वहीन रू ज्ञान दर्शन पूर्ण है। इसमें रहूं स्थित लीन इसमें, शीघ्र ये सब क्षय करूं।। 18 अर्थात् अपने को ज्ञान दर्शन से पूर्ण अरूपी शुद्ध आत्मा समझकर उसमें लीन रहने से यानी अशांति के भी ज्ञाता- दृष्टा बनते हुए रहने से अशांति नष्ट हो जाती है। यह नुस्खा कार्य करता है इसका समर्थन आधुनिक मनोवैज्ञानिक भी करते हैं। 19 परिशिष्ट 1 - हम व्यापारी हैं, हम पुरूष/स्त्री हैं, हम खरीददार हैं, हम जैन हैं, हम मनुष्य हैं, हम आत्मा हैं.....। हमारे इतने परिचय हो गए हैं कि हम स्वयं उलझ गये हैं। हम हमारा असली परिचय भूल गए हैं। इस लेख में हमारे असली परिचय की महत्ता एवं 28 अर्हत् वचन, 15 (3), 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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