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पैदा होने वाले क्रोध, डर, अहंकार आदि विकारी भाव समुद्र में हवा के द्वारा उत्पन्न लहरों की तरह अस्थायी हैं व ये सब भाव मेरी आत्मा का बिगाड़-सुधार नहीं कर सकते हैं। मन में कभी शान्ति अनुभव होती है व कभी अशान्ति अनुभव होती है, यह मन का बिगाड़-सुधार आत्मा से भिन्न है यानी मुझसे भिन्न है, यह बिगाड़ -सुधार आत्मा के बाहर का बाहर रहता है। त्रिभुज का एक बिन्दु 'स' :
यद्यपि आत्मा पूर्ण है यानी मैं पूर्ण हूँ यानी मेरा बिगाड - सधार नहीं होता है किन्त शरीर को सामान्यतया भूख लगती है, मन में सामान्यतया मान-अपमान, यश-अपयश एवं सुरक्षा के भाव आते रहते हैं। मन में शान्ति की चाह होती है। शरीर व मन की ये आवश्यकताएं एवं कामनाएं किस तरह संयमित या अनुशासित हों कि स्वयं के तथा अन्य के शरीर व मन की पीड़ा कम से कम हो। परोपकार, सत्संग, अध्ययन, उचित भोजन, उचित वाणी, ध्यान, यथायोग्य मेल-मिलाप की कला इस बिन्दु के अन्तर्गत व्यक्ति सीखता है। सीखते-सीखते यह भी समझ में आने लगता है कि मन की शान्ति का आधार चाह कम करके आत्मदृष्टि करने में है। मन की शान्ति की आधार परिस्थिति से डरने या घबराने में नहीं है। चाह या डर कम करने में सुस्ती भी उचित नहीं व उतावलापन भी उचित नहीं। जैसे शारीरिक व्यायाम करने वाले जानते हैं कि किस तरह सस्ती हानिकारक है व किस तरह 100 ग्राम का वजन उठाने से मांसपेशियों का व्यायाम नहीं हो जाता है किन्तु 100 किलो का वजन पहले ही दिन उठा लेने में हानि हो जाती है उसी तरह यहां भी यही प्रक्रिया लागू होती है। त्रिभुज का एक बिन्दु 'व' :
मन में शान्ति रहना, परिवार में सभी का निरोग रहना, व्यापार में लाभ होना शरीर व मन को सुखद लगता है। पुण्यात्मा जीव के इस तरह की मनोकामनाएं सामान्यतया पूर्ण होती हैं। किन्तु इस तथ्य को भी नहीं भूलना है कि प्रत्येक मनोकामना का पूर्ण होना आवश्यक नहीं है। ज्ञानी के यह समझ विकसित हो जाती है कि कामनाओं की पर्ति न होने की स्थिति में मन में या शरीर में चाहे असुविधा या अप्रसन्नता या आंसू हों, या पूर्ति की स्थिति में प्रसन्नता हो, मैं तो आत्मा हूँ, मैं तो इन आंसुओं एवं प्रसन्नता-अप्रसन्नता का ज्ञाता- दृष्टा हं, इनसे मुझे कोई लाभ-हानि नहीं, इनसे मेरा कोई बिगाड़-सुधार नहीं, साथ ही यह भी समझ होती है कि सृष्टि में अकस्मात कुछ भी नहीं होता है। सब कुछ नियमों के अनुसार हो रहा है। कर्म- व्यवस्था किसी का पक्षपात नहीं करती है। किन्तु यह कर्म - व्यवस्था इतनी उत्तम है कि जो प्राणी सत्य समझ को अपनाते हैं उनकी संयमित कामनाएं सामान्यतया पूर्ण होती हैं। कभी ऐसा लग सकता है कि जीवन की गाड़ी अच्छी नहीं चल रही है किन्तु ऐसी स्थिति भी प्रकृति की कर्म व्यवस्था के अन्तर्गत ज्ञानी के लिए शुभ सिद्ध होती है।
त्रिभुज के तीनों बिन्दुओं का महत्व है। बिन्दु 'अ' में वर्णित लाभ - हानि से परे आत्मा की समझ न हो तो बिन्दु 'ब' में वर्णित हर्ष - आंसू में समभाव नहीं आ सकता है। बिन्दु 'ब' में वर्णित वस्तु व्यवस्था एवं कर्म सिद्धांत की समझ न हो तो बिन्दु 'स' में वर्णित शरीर की एवं मन की क्रियाएं संयमित नहीं हो जाती है। बिन्दु 'स' की समझ के आधार पर मन व शरीर स्वच्छ न हों तो बिन्दु 'अ' की आत्मा की गहरी समझ ठहर नहीं पाती है।
अर्हत् वचन, 15 (3), 2003
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