Book Title: Arhat Vachan 2003 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 37
________________ इस आस्था के अन्तर्गत यह समझ होती है कि सृष्टि में अकस्मात कुछ भी नहीं होता है, सभी. कुछ नियमों से होता है व आत्मा अनन्त शक्तिमान, अविनाशी व परिपूर्ण है। जब तक यह समग्र दृष्टि नहीं होती है तब तक व्यक्ति अपने दुर्भाग्य के लिए मौसम, सरकार, परिवार, पड़ोसी, कलियुग आदि को जिम्मेदार ठहराता है। अध्यात्म की थोड़ी समझ आने के बाद व्यक्ति यह जान लेता है कि उसके जीवन में जो कुछ भी घटित हो रहा है उसके लिए उसके द्वारा पूर्वकृत कर्म ही जिम्मेदार हैं। विशिष्ट ज्ञानी इस समझ को भी अपूर्ण समझ मानते है क्योंकि दुर्भाग्य के लिए स्वयं को दोषी मानना भी तो कष्ट का कारण बनता है, यह समझ स्वयं को धिक्कारने की ओर यदि ले जाये तो फिर इससे लाभ कम होता है व हानि अधिक होती है। जो अधूरी समझ के कारण इस तरह से स्वयं को धिक्कारने की स्थिति में हो उसे यह समझना बाकी है कि तुम तो आत्मा हो जिसे दुर्भाग्य छूता नहीं है। भारतीय दर्शन में व जैनाचार्यों ने इस तथ्य को विस्तृत वेज्ञान के रूप में निरूपित किया है जिसे भेद विज्ञान या वीतराग विज्ञान कहा जाता है। भेद विज्ञान को इतना अधिक महत्व दिया है कि इसे मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी या धर्म का प्रारंभ भी कहा है। भेद विज्ञान की अवस्था को आत्मज्ञान की उपलब्धि या सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान की अवस्था भी कहा जाता है। समयसार कलश में कहा11 है कि जितनी भी आत्माएं परमात्मा बनी हैं वे सभी भेदविज्ञान के द्वारा बनी हैं व जितने भी जीव संसार में बंधे हैं वे भेदविज्ञान के अभाव द्वारा ही बंधे हुए हैं। भेदविज्ञान के अन्तर्गत ज्ञानी यह समझता है कि मैं शरीर नहीं हूँ, वाणी नहीं हूँ, मन नहीं हैं, इनका कारण नहीं हूँ, इनका कर्ता नहीं हूँ....; आचार्य अमृतचन्द्र समयसार कलश में बताते हैं12 - नाहं देहो न मनो न चैव वाणी न कारणं तेषां। कर्ता न न कारयिता अनुमन्ता नैव कर्तृणाम्॥ इसी तरह आचार्य कुन्दकुन्द समयसार 13 में लिखते हैं कि - . कर ग्रहण प्रज्ञा से नियत. ज्ञाता है सो ही मैं ही हैं। अवशेष जो सब भाव हैं, मेरे से पर ही जानना।। इसी ग्रंथ में आचार्य समझाते हैं कि - उपयोग में उपयोग, को उपयोग नहीं क्रोधादि में। है क्रोध क्रोध विर्षे हि निश्चय, क्रोध नहिं उपयोग में।14 इन गाथाओं का संक्षिप्त भावार्थ यह है कि क्रोध, अहंकार, डरं आदि विकारी भाव ज्ञान-दर्शन (उपयोग) स्वभाव वाले मुझ आत्मा से भिन्न हैं। इसी तारतम्य में आचार्य अमृतचन्द्र समयसार कलश15 में एक सिद्धान्त निरूपित करते हए शिक्षा देते हैं कि - सिद्धान्तोऽयमुदात्त चित्त चरितैर्मोक्षार्थिभिः सेव्यतां शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योति: सदैवास्म्यह। एते ये तु समुल्लसंति विविधा भावा: पृथग्लक्षणा स्तेहं नास्मि यतोऽय ते मम पर द्रव्यं समग्र अपि॥ इस श्लोक का भावार्थ यह है कि इस सिद्धान्त का सेवन करना चाहिए कि "मैं तो सदा शुद्ध चैतन्यमय एक परमज्योति ही हं, जो यह भिन्न लक्षणवाले विविध प्रकार के भाव प्रगट होते हैं वे मैं नहीं है, क्योंकि वे सभी मेरे लिए पर हैं।" अर्हत् वचन, 15 (3), 2003 35 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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