Book Title: Arhat Vachan 2003 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

View full book text
Previous | Next

Page 23
________________ भुखनन वृक्षमोटन, शाड् वलदलनां ऽम्बुसेचवादीनि । निष्कारणं न कुर्यात्, दलफल कुसुमोच्चयानापि च ॥ - भूमि को खोदना, वृक्ष को उखाड़ना, घास, पत्ते तोड़ना, पानी ढोलना, सिंचन करना आदि कार्य निष्कारण नहीं करना चाहिये। आदि शब्द से अन्य भी जितने निष्कारण, अप्रयोजन कार्य हैं, उन्हें भी नहीं करना चाहिये। किसी भी कार्य को अनावश्यक करना अनर्थदण्ड रूप हिंसा है। 2. अपरिग्रह से पर्यावरण के संरक्षण 'सादा जीवन उच्च विचार' भारत की एक महान परम्परा है। इससे व्यक्ति का व्यक्तित्व महान्, पवित्र, उदार, उदात्त तो बनता ही है, उसके साथ- साथ पर्यावरण सुरक्षा में भी महान् योगदान मिलता है। उच्च विचार के कारण यह किसी भी जीव को या विश्व के किसी भी घटक को क्षति नहीं पहुँचाता है। आडम्बर पूर्ण भौतिक सम्पन्नता युक्त विलासमय जीवन के लिये व्यक्ति को अधिक भौतिक साधन धन, सम्पत्ति चाहिये और इसके लिये उसे दूसरे मनुष्य का शोषण एवं पर्यावरण का दोहन करना होगा यथा वनस्पति, जल, खनिज की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिये प्रकृति का दोहन एवं शोषण होता है जिसके कारण प्रकृति का संतुलन बिगड़ता है। फेक्ट्री आदि से जो धुआँ, गन्दा पानी अपशिष्ट आदि निकलता है उससे जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण होता है। इसलिये भारतीय परम्परा में गृहस्थ लोग सीमित परिग्रह (अपरिग्रह अणुव्रत) रखते हैं। तथा साधु संत समस्त परिग्रह त्याग कर देते हैं। दिगम्बर जैन साधु तो अन्य परिग्रह के साथ- साथ समस्त प्रकार के वस्त्र का भी त्याग कर देते हैं। 3. ब्रह्मचर्य से पर्यावरण संरक्षण जनसंख्या वृद्धि से खाद्य समस्या, निवास समस्या के साथ-साथ मनुष्य से उत्सर्जित मल-मूत्र, अपशिष्ट आदि से जल, वायु, मृदा प्रदूषण होता है। सघन जन बस्ती के कारण प्राण वायु की कमी होती है। कृत्रिम गर्मी बढ़ती है। यातायात के लिये प्रयोग में आने वाले यान वाहनों से वायु प्रदूषण, शब्द प्रदूषण भी बढ़ता है। इसीलिये भारत में साधु-संत तो पूर्ण ब्रह्मचर्य में रहते हैं। गृहस्थ भी ब्रह्मचर्य अणुव्रत का पालन करते हैं। Jain Education International - 4. निर्व्यसन से पर्यावरण संरक्षण भारत में नैतिकपूर्ण सादा, उच्च आदर्शमय स्वस्थ जीवन जीने के लिये मद्य, मांस, शिकार, चोरी, जुआ, वेश्यागमन, परस्त्री सेवन त्यागरूपी जीवन निर्व्यसन जीवन होता है। मद्य सेवन से भाव प्रदूषण होता है। मद्य तैयार करने में जल, वायु प्रदूषण भी होता है मांस भक्षण करने से जीवों की हत्या होती है, शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य खराब होता है जलचर जीव की हत्या से जल प्रदूषण, पक्षी की हत्या से वायु प्रदूषण एवं स्थलचर जीवों की हत्या से स्थल प्रदूषण बढ़ता है इसी प्रकार ऐसे ही दोष शिकार व्यसन में है। परस्त्रीगमन, वेश्यागमन से शारीरिक, मानसिक रोग के साथ- साथ सामाजिक प्रदूषण होता है। इस प्रकार चोरी, जुआ से भी मानसिक प्रदूषण, आर्थिक प्रदूषण एवं सामाजिक प्रदूषण होता है। तम्बाकू, बीड़ी, सिगरेट, अफीम, गांजा आदि के सेवन भी मद्य व्यसन में सम्मिलित हैं। इससे भी आर्थिक, शारीरिक, मानसिक प्रदूषण होता है। - 5. समितियों से पर्यावरण की सुरक्षा सावधानीपूर्वक जीवों की सुरक्षा करते हुए स्वकर्तव्यों का पालन करना समिति है। ईर्ष्या समिति में सूर्य के प्रकाश में जीवों की रक्षा करते हुए चलने का विधान है। भाषा समिति में हितमित प्रिय वचन बोले जाते हैं। इससे शब्द अर्हत् वचन 15 (3) 2003 - For Private & Personal Use Only 21 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148