Book Title: Arhat Dharm Prakash
Author(s): Kirtivijay Gani, Gyanchandra
Publisher: Aatmkamal Labdhisuri Jain Gyanmandir

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Page 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन यह तो स्वाभाविक बात है कि, कोई भी व्यक्ति व्याधिग्रस्त स्थिति में आकुल-व्याकुल बना हुआ अपनी रोग-निवृत्ति के लिये आतुर बने बिना रहता नहीं; परन्तु जब तक उसकी चिकित्सा की योग्य साधन-सामग्री उपलब्ध न होः तब तक उसके मनोरथ सफल नहीं होते। उसी तरह से माँस, रुधिर और मल-मूत्र-जैसे अशुचि पदार्थों से भरे हुए दुर्गन्धि-युक्त देह के कारागृह में जन्म-जरा-मृत्यु-रूपी महारोग की पीड़ा से मुक्त होने की आतुरता मेधावी मानव प्राणी में होना स्वाभाविक है और उसके लिए अनेक तरह के विचार एवं ऊहापोह होना भी अनिवार्य है। मानववर्ग के इस प्रकार के सद्विचार को तत्त्वगवेषक वृत्ति (Philosophic attitude) कहते हैं। खासकर हमारे भारतवासियों में आत्मश्रद्धा के प्रबल संस्कारों के कारण उनके तत्त्वदर्शन में मनन-मंथन एवं अधिक प्रवेश होने से 'मुक्तिवाद' हमारे देश का महामंत्र बना हुआ है और भारत की चारों दिशाओं में “सा विद्या या विमुक्तये" का ब्रह्मवाक्य गूंज रहा है । परन्तु, मुक्तिमार्ग को निष्कण्टक, निराबाध और सुलभ प्राप्य बनाने में आईत्-दर्शन ( जैन-दर्शन ) को ही सर्वोच्च स्थान दिया जाता है; क्योंकि मुक्तिमार्ग की सिद्धि के लिये ब्यवस्थित और पद्धतिसर साधन-सामग्री की रचना सर्वाङ्ग सुंदर ढंग से जैसी इस दर्शन में पायी जाती है, वैसी अन्यदर्शनों में नजर नहीं आती। यद्यपि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि पाँच मौलिक सिद्धान्त ( Fundamental Principles ) प्रायः सब ही दर्शन मानते हैं; परन्तु उनको जीवन में (Practicable in the life) चरितार्थ कैसे करना, उसका सरल और सिद्ध उपाय जैनदर्शन में बड़ा ही विषद् है। अर्थात् उत्तरोत्तर विकास श्रेणी ( Evolutionary Spiritual ladder ), जिसको जैन परिभाषा में 'गुणस्थानक' कहते हैं, For Private And Personal Use Only

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