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( १३ ) नहीं देता, प्रयोग द्वारा तैयार किये जाने पर ही घी दिखाई देता है, उसी प्रकार आत्मा केवलज्ञान और केवलदर्शन अर्थात् सम्पूर्ण निर्बाध ज्ञान और सम्पूर्ण निर्बाध दर्शन द्वारा जानी जा सकती है । ज्ञान-रूपी कार्य आत्मा का ही है, चेतन का ही है, जड़ का नहीं । जड़ में ज्ञान का लवलेश भी नहीं होता । शरीर भोग्य है, उसका भोक्ता कोई न कोई अवश्य होना चाहिए। वही भोक्ता आत्मा है, भोग्य से भोक्ता अलग होता है।
मैं कौन हूँ-यह प्रतीति भी आत्मा की सिद्धि करती है।
स्तंभ, पाट आदि किसी भी जड़ वस्तु में अहंपने का प्रतिभास नहीं होता । जब शरीर में आत्मा होती है, तभी वह 'मैं हूँ' तथा 'मैं सुखी या दुःखी हूँ' इत्यादि-इत्यादि बोलती है । क्योंकि, ज्ञान आत्मा का ही गुण हैं, जड़ का नहीं। ___ पर जब शरीर में से आत्मा निकल जाती है, तब मृतक को 'मैं हूँ' का भास नहीं होता । इसलिए शरीर भिन्न वस्तु और आत्मा उससे भिन्न वस्तु है । ___जैसे खिड़की में खड़ा रहनेवाला मनुष्य खिड़की से भिन्न है । उसी प्रकार शरीर और शरीर में रहकर समस्त वस्तुओं को देखनेवाली आत्मा दोनों परस्पर पृथक हैं। लोग कहते हैं, आँख देखती है; पर आँख नहीं देखती-आत्मा देखती है। मृतक व्यक्ति में भी जीवित व्यक्ति की तरह बड़ी-बड़ी आँखें होती हैं, फिर भी मुर्दा क्यों नहीं देखता ? बात इस दृष्टांत से स्पष्ट है और हमें बरबस स्वीकार करना पड़ेगा कि आँख नहीं देखती थी; पर जीवित व्यक्ति में शरीर व्यापी आत्मा थी, वह देखती थी । आँख साधन है । जिस प्रकार मकान में से खिड़की या दरवाजे द्वारा मनुष्य बाहर देखता है, उसी प्रकार मनुष्य आँख द्वारा देख सकता है। ऐसे दृष्टांतों से हम समझ सकते हैं कि, आँख इत्यादि इन्द्रियाँ भिन्न वस्तु हैं और आत्मा उनसे अतिरिक्त भिन्न वस्तु है। जिस प्रकार अरणी की
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