Book Title: Arhat Dharm Prakash
Author(s): Kirtivijay Gani, Gyanchandra
Publisher: Aatmkamal Labdhisuri Jain Gyanmandir

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इससे भी हम समझ सकते हैं कि, एक साथ पैदा होने पर भी, पूर्व भव के कर्म के परिणाम-स्वरूप इस प्रकार की अद्भुत् विचित्रता दिखायी देती है। ____ जब आत्मा किसी अन्य स्थान से आयी है, तब यह भी निश्चित है कि, अपने कर्मानुसार वह कहीं अन्यत्र जानेवाली है।। _आत्मा अमर है, अखण्ड है, अविनाशी है। जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्र जीर्ण होने पर नवीन वस्त्र पहनता है और पुराने वस्त्रों को उतारकर फेंक देता है, उसी प्रकार यह आत्मा एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण करती है। शरीर बदल जाने पर भी यह आत्मा वह की वही रहती है । वह आत्मा कर्मानुसार विविध गतियों में परिभ्रमण करती है और अनेक प्रकार की यातनाओं-पोड़ाओं की भोग बनती है । पर, इतना होते हुए भी मनुष्य देवों के लिए भी दुर्लभ मनुष्य-जन्म को प्राप्त करके भी अनेक प्रकार के कुकर्म करता है । हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार, अनीति, बुराई, ईर्ष्या और निन्दा, विकथा द्वारा अशुभ कर्मों को संचित करता है । ये कर्म आत्मा के साथ क्षीर-नीरकी तरह एकाकार हो जाते हैं। परिणामस्वरूप आत्मा को अनेक जन्म-जन्मान्तरों में असह्य दुःख सहन करने पड़ते हैं। ____मनुष्य वर्तमान काल का विचार करता है, परन्तु भविष्य का विचार नहीं करता । संकुचित दृष्टि व्यक्ति को यह खबर नहीं कि, केवल पाँच-पचास वर्ष की छोटी-सी जिंदगी के लिए, मान-सम्मान के लिए और बड़ा कहलाने के लिए वह धर्म-कर्म के साथ ही साथ आत्मा तक को भूल जाता है । परिणाम स्वरूप उसी आत्मा को उसके कर्मों के कड़ए फल चखने पड़ते हैं । भविष्यकाल अनन्त है । एक छोटे से जीवन में क्षणिक तुच्छ सुखों के लिए प्राणी असंख्यकालीन दुःखों की परम्परा अपने ऊपर लाद लेता है। कितनी अधिक मूर्खता ? मनुष्य अपनी बुद्धि के घमण्ड में मरा जाता है। गर्विष्ट होकर जो For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82