Book Title: Arhat Dharm Prakash
Author(s): Kirtivijay Gani, Gyanchandra
Publisher: Aatmkamal Labdhisuri Jain Gyanmandir

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Page 51
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३४ ) का हाथ हाथी के पैर पर पड़ा । अतः उसने कहा – “ हाथी ठीक स्तम्भ - सरीखा है । चौथे ने सूँड़ छुआ और बोला - "यह तो खूँटे जैसा है । " पाँचवें का हाथ पेट पर पड़ा । पेट स्पर्श करके वह बोला- "यह तो पहाड़ की तरह लगता है ।" छठें ने पूँछ छूई और कहने लगा- "मुझे तो यह ठीक रस्सी की तरह लगता है । " हर अन्धा यह समझता था कि, केवल उसकी बात सत्य है और शेष सब झूठ कह रहे हैं । इस प्रकार उन अन्धों में विवाद हो गया । महावत अन्धों की बात ध्यानपूर्वक सुन रहा था । विवाद होता देख कर वह निकट आकर बोला - " अरे भाई, तुम लोग क्यों विवाद कर रहे हो। तुम में से किसी ने पूर्ण रूप से हाथी का साक्षात्कार नहीं किया । तुम सबने उसका एक - एक अंग स्पर्श किया है और उसी ज्ञान के आधार पर हाथी के रूप के सम्बन्ध में अपना-अपना मत व्यक्त करना प्रारम्भ कर किया है। इसी कारण तुम सब विवाद कर रहे हो । मैं तो नित्य हाथी देखता हूँ । अतः कह सकता हूँ कि, हाथी सूप की तरह भी है, साँवेला के समान भी है, रस्सी के समान भी है, खम्भे के समान भी है और खूँटे के समान भी है । " महावत की बात सुनकर उन अन्धों को अपनी भूल का ज्ञान हो गया और वे चुप हो गये । करता इन उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो गई होगी कि, व्यक्ति वस्तु को जिस अपेक्षा अथवा दृष्टि से देखता है, उसी दृष्टि से उसका वह वर्णन है । उसका वर्णन सत्य अवश्य है; पर मात्र उसे दृष्टि में रखकर हम अन्य दृष्टि से उपलब्ध अनुभव को मिथ्या नहीं कह सकते । तात्पर्य यह कि, किसी वस्तु के स्वरूप को ठीक-ठीक समझने के लिए विभिन्न अपेक्षओं से उसे देखना आवश्यक है । For Private And Personal Use Only

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