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६. काल - ढाई द्वीपवर्ती परम सूक्ष्मभाव है । इसके विभाग नहीं हो सकते तथा एक समय - रूप वहाँ होने से इसकी अस्तिकाय भी घट नहीं सकती । एक समान जातिवाले वृक्ष इत्यादि में एक ही समय ऋतु तथा समय के कारण विचित्र परिवर्तन होते हुए मालूम पड़ते हैं । यह वस्तु ही 'काल' की नियामकता सूचित करती है। इस बालक की अवस्था बड़ी है, इस विद्यार्थी की अवस्था छोटी है, यह जानकारी भी काल की सत्ता के बिना कैसे सम्भव हो सकती है ? इसलिए काल के अस्तित्व को स्वीकार करना सुगम तथा शंकाविहीन है ।
जैन- दर्शन सम्मत इन ६ द्रव्यों पर ही सारी विश्वरचना का आधार है। अब तो वैज्ञानिक भी मानने लग गये हैं कि, हिलने-डुलने तथा ठहरने आदि क्रियाओं के स्वतन्त्रकर्ता जीव और जड़ पदार्थ ही हैं । वे अपने ही व्यापार से हिलते डुलते तथा ठहरते हैं, फिर भी उन क्रियाओं में सहायकरूप से किसी एक शक्ति की अपेक्षा रहती ही है । वैज्ञानिकों का यह मन्तव्य 'धर्मास्तिकाय' के अस्तित्व में प्रबल प्रमाण है । षड्द्रव्य का विचार इतना अधिक विस्तृत है कि, उस विषय के विशालकाय कितने ही ग्रन्थों का निर्माण हो सकता है, परन्तु यहाँ स्थान-संकोच के कारण संक्षिप्त हो वर्णन किया है ।
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