Book Title: Arhat Dharm Prakash
Author(s): Kirtivijay Gani, Gyanchandra
Publisher: Aatmkamal Labdhisuri Jain Gyanmandir

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Page 55
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३८ ) पुदगलों की गति और स्थिति है । अलोक में इन दोनों पदार्थों का सद्भाव न होने से, वहाँ न तो एक भी अणु है और न जीव है । वहाँ लोक में से कोई भी अणु या जीव जा भी नहीं सकता; क्योंकि गति में सहायक और स्थिति करानेवाले उपरोक्त दोनों 'धर्म या अधर्म' द्रव्य वहाँ नहीं हैं | आकाश द्रव्य विस्तार में अनन्त है अर्थात् उसका कहीं अन्त नहीं है । ---- ४. पुद्गलास्तिकाय -- परिपूर्ण होना और गिर पड़ना, अलग हो जाना इत्यादि स्वभाववाले पदार्थ को 'पुद्गल' कहते हैं । पुद्गल का कुछ हिस्सा चाक्षुत्र प्रत्यक्ष होता है और परमाणु जैसे कुछ पुद्गलों की सत्ता अनुमान प्रमाण द्वारा जानी जा सकती है । घड़ा, चटाई, पाट, महल, गाड़ी इत्यादि पदार्थ स्थूल-पुद्गलमय है; क्योंकि ये सब पदार्थ हमारी दृष्टि में आते हैं । इनके सिवाय जो पुद्गल अत्यन्त सूक्ष्म हैं, उनकी सिद्धि अनुमान प्रमाण द्वारा हो सकती है, जैसे परमाणु उसके वाद द्वयक फिर त्रसरेणु इत्यादि शब्द, प्रकाश, छाया, ताप और अन्धकार इत्यादि पुद्गल केही प्रकार हैं । ५. जीवास्तिकाय - चैतन्यस्वरूप आत्मा को जीव कहते हैं । 'मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ', ऐसा अनुभव किसी मृतक को नहीं होता; क्योंकि उस समय उसमें चैतन्य-स्वरूप आत्मा नहीं रहती । वह वर्तमान शरीर को छोड़ अपने कर्मानुसार दूसरे शरीर में चली जाती है । कुल्हाड़ी से लकड़ी काटी जाती है; परन्तु कुल्हाड़ी और काटनेवाला अलग-अलग होते हैं । दीपक से देखा जाता है, परन्तु देखनेवाला और दीपक दोनों भिन्न-भिन्न हैं । उसी प्रकार इन्द्रियों द्वारा रूप, रस इत्यादि ग्रहण किये जाते हैं । परन्तु, इन्द्रियाँ और उन विषयों का अनुभव करनेवाला दोनों अलग-अलग हैं। आत्मा सफेद काली या पीली इत्यादि किसी वर्ण की नहीं होती; इसीलिए उसका इन चर्मचक्षुओं द्वारा प्रत्यक्ष नहीं होता, फिर भी अनुमान - प्रमाण से उसकी सिद्धि होती है । For Private And Personal Use Only

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