Book Title: Arhat Dharm Prakash
Author(s): Kirtivijay Gani, Gyanchandra
Publisher: Aatmkamal Labdhisuri Jain Gyanmandir

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Page 68
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन-धर्म अनादिकालीन है यह बात जगत-मान्य है कि, जैन-धर्म बौद्ध-धर्म की शाखा नहीं है । तथागत बुद्ध के चाचा वप्प भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के अनुयायी थे। स्वयं गौतमबुद्ध बचपन में अपने चाचा के साथ अनेक बार भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यों के पास जाया करते थे; इसलिए उनके सिद्धांतों पर बहुत-कुछ छाप जैन-धर्म के तेवीसर्वे तीर्थकर पार्श्वनाथ की है। कुछ लोग कहते हैं कि, भगवान् महावीर ने जैन-धर्म प्रारंभ किया है। यह बात सर्वथा मिथ्या है । इतिहास तथा जैन-सिद्धांत द्वारा यह बात सिद्ध है कि, भगवान् महावीर ने इसे शुरू नहीं किया, उनके पहले भी तेईस तीर्थंकर हो गये थे। उस समय भी जैनधर्म था और इस काल के इन चौबीस तीर्थंकरों के पहले भी जैन-धर्म प्रचलित था। जैन-सिद्धांतानुसार जो-जो तीर्थंकर होते हैं, वे वस्तुतः नवीन कुछ भी प्रारम्भ नहीं करते। परन्तु वे संपूर्ण ज्ञानी होकर धर्म को प्रकाश में लाते है, उसका प्रचार करते हैं, धर्म की प्ररूपणा करते हैं; परन्तु वह उनके समय से शुरू हुआ यह बात बिलकुल मिथ्या है। वेद, पुराण, स्मृति, त्रिकुरल आदि अनेक इतर धर्म-शास्त्रों में भी श्री ऋषभदेव भगवान से लेकर चौबीसों तीर्थंकरों की स्तुति है। इसी से समझ में आ सकता है कि जैन-धर्म वेद से भी प्राचीन है। इसी प्रकार जैन-धर्म हिन्दू-धर्म की शाखा भी नहीं है, इस बात की बोषणा तो वर्तमानकालीन अनेक पौर्वात्य और पाश्चात्य विद्वानों ने की है। कुछ विद्वानों के अभिप्रायों को हम यहाँ दे रहे हैं। बौद्ध-ग्रन्थ 'धम्मपद' मैं ऋषभदेव भगवान् से लेकर महावीर स्वामी तक की स्तुति आती है । इससे स्पष्ट है कि, जैन-धर्म बौद्ध-धर्म से प्राचीनतर है। ****** For Private And Personal Use Only

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