Book Title: Arhat Dharm Prakash
Author(s): Kirtivijay Gani, Gyanchandra
Publisher: Aatmkamal Labdhisuri Jain Gyanmandir
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥ अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ॥ योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ॥ ॥ कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ॥ आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर Websiet : www.kobatirth.org Email: Kendra@kobatirth.org www.kobatirth.org पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. श्री जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प ग्रंथांक : १ महावीर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर - श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स: 23276249 जैन ।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।। ॥ चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। अमृतं आराधना तु केन्द्र कोबा विद्या Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only 卐 शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079) 26582355 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आर्हत धर्म प्रकाश [जैन धर्म] लेखक : व्याख्यान वाचस्पति सूरिसार्वभौम पू० पा० आचार्यदेव श्रीमद्विजय लब्धि सूरीश्वरजी महाराज के पट्टालंकार दक्षिणदीपक पू० आचार्य देव श्रीमविजय लक्ष्मण सूरीश्वरजी महाराज के शिष्यरत्न पू०पंन्यासजी श्री कीर्तिविजयजीगणिवर सम्पादक ज्ञानचन्द्र विद्याविनोद For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra For Private And Personal Use Only www. kobatirth.org મદ્રાસ-દયાસદનના ઉદ્દઘાટન પ્રસંગે ભૂતપૂર્વ ગવર્નર જનરલ શ્રી સી. રાજગોપાલાચારી, પૂ. પાદ આચાર્ય દેવ શ્રીમદ વિજયલક્ષ્મણસૂરીશ્વરજી મહારાજના નતમસ્તકે આશીર્વાદ માગી રહ્યા છે, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir દક્ષિણદેશદ્ધારક પ્ર. પા. આચાર્યદેવ શ્રીમદ્ વિજય લક્ષ્મણ સૂરીશ્વરજી મહારાજ લેખક : શતાવધાની કવિકુલ તિલક પૂ. પંન્યાસજી શ્રી કીતિવિજયજી ગણિવર For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir સ્વ. હેમકુંવરબહેન રાજ લાઠીનિવાસી સ્વ. દોશી કેશવજી માણેકચંદના ધર્મ પત્ની સ્વ. હેમકુંવરબહેનના આત્માના શ્રેયાર્થે આ પુસ્તક તેમના સુપુત્રી છોટાલાલ તથા ધીરજલાલ તરફથી સપ્રેમ ભેટ [ હાલ મુંબઈ ] For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *STER* * * *CHERX णमो जिणाणं आत्म-कमल-लब्धि-सूरीश्वरजीजैन-ग्रन्थमाला का १८-वाँ पुष्प *CD*SIO आहेत-धर्म-प्रकाश (जैन-धर्म) D •* XXNO-* exX SEX CORXCOXxx CS-Cler* लेखक : व्याख्यान वाचस्पति कविकुल-किरीट पू० पा. आचार्य देव श्रीमद्विजयलब्धिसूरीश्वरजी महाराज के पट्टप्रभावक दक्षिण-दीपक पू० आचार्यदेव श्रीमद्विजयलक्ष्मणसूरीश्वरजी महाराज के शिष्यरत्न कविकुल-तिलक पू० पंन्यास जी श्री कीर्ति विजयगणिवर महाराज * CARD*Stor* * Cler* सम्पादक ज्ञानचन्द्र विद्याविनोद kee-kể:ê xe excitekeek For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशक बी० बी० मेहता प्रथम संस्करण ५००० श्री आत्म-कमल-लब्धि-सूरीश्वरजी-जैन-ज्ञान-मंदिर, द्वितीय संस्करण १००० ६ ऐस लेन, दादर (पश्चिम ) बम्बई २८ ५०० प्रतियाँ-लाठी-निवासी स्वर्गीय दोसी केशवजी माणिकचंद्र की धर्मपत्नी स्व० हेमकुँवर की आत्मा के श्रेयार्थ उनके सुपुत्र छोटेलाल तथा धीरजलाल की ओर से सप्रेम भेट | गुजराती १७५० seeeeeeeeeeeo आहेत-धर्म-प्रकाश प्रथम संस्करण द्वितीय संस्करण १००० तृतीय संस्करण २२५० चतुर्थ संस्करण प्रथम संस्करण द्वितीय संस्करण १००० तमिल ५००० अंग्रेजी १५००० कनड्ड १८००० मराठी ५००० १००० हिन्दी peeeeeeeeeeo तेलुगु ६०,००० अनुवादक न्यायाचार्य महेन्द्रकुमार शास्त्री मुद्रक-बलदेवदास संसार प्रेस, काशीपुरा, वाराणसी । For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषय-सूची पृष्ठ १-३ जैनधर्म आश्चर्यजनक विशालता जैन-साधु आत्मा कर्म ईश्वर की उपासना ईश्वर का कर्तृत्व ८-१० ११-१४ १५-२० २१-२२ २३-२४ २५ २६-३१ ३२-३६ ३७-३९ ४० जैन गृहस्थ के व्रत स्यादवाद षद्रव्य जैन-तप ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः रात्रिभोजन आधुनिक विज्ञान जैन धर्म अनादिकालीन है जगत की दृष्टि में पुनर्जन्म के कुछ प्रमाण ४२-४४ ४५-५० ५१ ५२-५६ ५७-६४ For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राक्कथन यह तो स्वाभाविक बात है कि, कोई भी व्यक्ति व्याधिग्रस्त स्थिति में आकुल-व्याकुल बना हुआ अपनी रोग-निवृत्ति के लिये आतुर बने बिना रहता नहीं; परन्तु जब तक उसकी चिकित्सा की योग्य साधन-सामग्री उपलब्ध न होः तब तक उसके मनोरथ सफल नहीं होते। उसी तरह से माँस, रुधिर और मल-मूत्र-जैसे अशुचि पदार्थों से भरे हुए दुर्गन्धि-युक्त देह के कारागृह में जन्म-जरा-मृत्यु-रूपी महारोग की पीड़ा से मुक्त होने की आतुरता मेधावी मानव प्राणी में होना स्वाभाविक है और उसके लिए अनेक तरह के विचार एवं ऊहापोह होना भी अनिवार्य है। मानववर्ग के इस प्रकार के सद्विचार को तत्त्वगवेषक वृत्ति (Philosophic attitude) कहते हैं। खासकर हमारे भारतवासियों में आत्मश्रद्धा के प्रबल संस्कारों के कारण उनके तत्त्वदर्शन में मनन-मंथन एवं अधिक प्रवेश होने से 'मुक्तिवाद' हमारे देश का महामंत्र बना हुआ है और भारत की चारों दिशाओं में “सा विद्या या विमुक्तये" का ब्रह्मवाक्य गूंज रहा है । परन्तु, मुक्तिमार्ग को निष्कण्टक, निराबाध और सुलभ प्राप्य बनाने में आईत्-दर्शन ( जैन-दर्शन ) को ही सर्वोच्च स्थान दिया जाता है; क्योंकि मुक्तिमार्ग की सिद्धि के लिये ब्यवस्थित और पद्धतिसर साधन-सामग्री की रचना सर्वाङ्ग सुंदर ढंग से जैसी इस दर्शन में पायी जाती है, वैसी अन्यदर्शनों में नजर नहीं आती। यद्यपि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि पाँच मौलिक सिद्धान्त ( Fundamental Principles ) प्रायः सब ही दर्शन मानते हैं; परन्तु उनको जीवन में (Practicable in the life) चरितार्थ कैसे करना, उसका सरल और सिद्ध उपाय जैनदर्शन में बड़ा ही विषद् है। अर्थात् उत्तरोत्तर विकास श्रेणी ( Evolutionary Spiritual ladder ), जिसको जैन परिभाषा में 'गुणस्थानक' कहते हैं, For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दो और जीवन की भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ जिसको मार्गणाद्वार (Classified groups) कहते हैं, बड़े ही मननीय और विचारणीय विषय हैं, जिनके अध्ययन से जैनदर्शन की विशेषता का स्वतः अनुभव हुए बिना नहीं रहेगा। जैन दर्शन का मन्तव्य है कि "युक्तिभावं भवेद्तत्त्वं न तत्वं युक्तिवर्जितं" प्रत्येक विषय में युक्तितर्क से समझाने की शैली बड़ी सुन्दर है । किसी भी कार्य में उसके साधक, बाधक, द्योतक, घातक, पोषक, शोषक आदि सब ही विषयों पर गम्भीर विवेचन जैनदर्शन में पाया जाता है । इसका खास कारण जैन-दर्शन का सर्वाङ्गसुन्दर स्याद्वाद न्याय है, जो ( Central Doctrine ) केन्द्रित सिद्धान्त समझा जाता है, जिसके प्रयोग से वस्तुस्थिति का भिन्न-भिन्न दृष्टि से सर्वदेशीय संपूर्ण बोध होता है। इसीलिए, इस स्याद्वाद को अनेकान्तवाद अथवा अपेक्षावाद भी कहते है । पाश्चात्य विद्वानों (Western Scholar) ने तो इस स्याद्वाद के सिद्धान्त की मुक्तकंट से प्रशंसा की है। उनकी तो यहाँ तक मान्यता है कि, यह संसार में संघटन साधने की महाशक्ति (Unifying Force) है, जिसके प्रयोग से संसारभर के समस्त पारस्परिक विचारविरोध के वैमनस्यों का संतोषजनक समाधान होता है । इसलिए, स्याद्वाद को (Compromising System of Philosophy) सुलह-शांतिकारक दर्शन कहा है ! डा० आइंस्टाइन-जैसे संसार के सर्वोपरि विज्ञानवेत्ता के सापेक्षवाद (Theory of Relativity) की मान्यता कितने ही अंशों में स्याद्बाद की छायामात्र है। कहने का सारांश यह है कि, तत्त्वनिर्णय का अत्युत्तम साधन स्यावाद होने से, जैनदर्शन का समस्त दर्शनों में प्रधान स्थान है। इस दर्शन में कपोल-कल्पित कल्पनाओं ( Imaginary Conceptions ) अथवा भ्रमणाओं (Superstitions) का किंचित् मात्र भी स्थान नहीं है। जिस अटल विधान के अनुसार इस विराट विश्व को व्यवस्था हो रही है, उस सुचारु शासन (Systematised Government) के मूल तत्त्वों (Substances) की यथार्थ प्ररूपणा से यह For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तीन दर्शन भरा हुआ है। आधुनिक विज्ञानवेत्ता उसे (Rationalistic schooly of Philosophy) प्रमाणसिद्ध एवं हेतुवादी दर्शनशास्त्र कहते हैं। विज्ञान की कितनी ही विस्मयकारी शोध-खोजें (Scientific Researches) जो बाहर आती हैं, उनका वर्णन जैनसिद्धांतों में पूर्व से ही लिखा हुआ पाया जाता है—जैसे ध्वनि की गति, शक्ति और आकृति (Sound & its Velocity etc.), ईथर ( Ether ) जैसे सहकारी तत्त्व की मान्यता, उद्योत (light) प्रभा, तमः, छाया आतप आदि के परमाणु, पदार्थ का अंतरपरिणमन (Inter-penetration), वनस्पति की संज्ञाएँ (Instincts & feelings) जल के (Hydrogen and Oxygen) हायड्रोजन और ऑक्सीजन आदि तत्त्व तथा जलबिन्दु के सूक्ष्म जंतु और परमाणु ( Atoms & Molecules ) की मान्यता आदि अनेक. वैज्ञानिक विषयों का विस्तृत वर्णन सैकड़ों वर्षों के प्राचीन जैनशास्त्रों में पाया जाता है । अभी तक विज्ञान की अति सूक्ष्म अन्तिम मान्यता इलेक्ट्रोन और 'प्रोटोन' (Electrons & Protons) तक गयी है । परन्तु, जैनदर्शन के कार्मिक वर्गणा के परमाणु (Karmic molecules) जिनको अतीन्द्रिय ज्ञानदर्शनग्राह्य माने हैं, उनको तो 'अल्ट्रा-माइक्रो-मोलेक्यूल्म' कहना अत्युक्ति नहीं है, क्योंकि इलेक्ट्रोन-प्रोटोन से कई गुने सूक्ष्म हैं, जो किसी प्रकार के सूक्ष्मदर्शक यंत्र (Microscope) से भी दृष्टिगोचर नहीं हो सकते । इसी प्रकार इस दर्शन का आत्मवाद, तत्त्ववाद, क्रियावाद, तर्कवाद, न्यायवाद आदि सारे विषय इतने गहन और सूक्ष्म हैं कि, विचारशील विद्यार्थी को इसके अध्ययन से सहज ही विश्वास हो जाता है कि, इस दर्शन के निर्यामक महारथी एवं सूत्रधार केवल महामेधावी और प्रज्ञा-प्रौढ़ ही नहीं थे; परन्तु सर्वज्ञ और सर्वदर्शी थे--अन्यथा ऐसी प्ररूपणा असंभव होती । भले ही सामान्य वर्ग के लोग जैन-दर्शन का महत्त्व न भी समझे परन्तु बुद्धिवादी वर्ग (Intellectual class) तो इसकी तरफ बड़ा आकर्षित हुआ है। और, उसकी रूपरेखा ( Outlines ) समझने की For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चार उनमें बड़ी जिज्ञासा प्रकट हुई है। हमारी संस्था 'जैन-मिशन-सोसाइटी" के पास देश-देशान्तरों के कई लोगों को जैन-साहित्य के लिये माँग आ रही है; परन्तु जैन-दर्शन के भिन्न-भिन्न विषयों का निष्कर्षरूप (Nutshell form) एक छोटा निबन्ध हमारे पास तैयार न होने से हमारे सामने उनकी मांग पूरी करने का प्रश्न था । दैवयोग से इस वर्ष हमारे नगर के पुष्योदय से, महान् प्रभावशाली, प्रखर वक्ता, पूज्य आचार्य महाराज श्री श्री १००८ श्रीमद्विजयलक्ष्मणसरीश्वरजी महाराज का चातुर्मास हुआ और उनके विद्वत्ता से भरे हुए व्याख्यान श्रवण करने से यह भावना हुई कि, उन श्रीजी से ऐसा निबन्ध प्रकाशित करने की प्रार्थना की जावे । तदनुसार हमने प्रार्थना की और संतोषजनक प्रत्युत्तर मिला । अर्थात् उन्होंने अपने विद्वान् शिष्य पंन्यास श्री कीर्तिविजयजी गणिवर को इस बारे में संकेत किया। पूज्य कीर्तिविजय जी ने उनकी आज्ञानुसार सरल ढंग से और सुन्दर शैली से सकल मौलिक विषयों का साररूप यह निबन्ध तैयार किया । इसमें प्रतिपादन बहुत ही युक्तिसंगत एवं बुद्धिगम्य है, जिससे आम प्रजा खूब लाभ उठा सकती है। पूज्यश्री के लिये दो शब्द प्रशंसा के कहे बिना रहा नहीं जाता; क्योंकि कुछ दिनों तक उनश्री के सत्संग का लाभ और उनके प्रशस्त पुरुषार्थ का अनुभव हुआ है। वे बड़े कार्यकुशल और कुशाग्र बुद्धिसंपन्न हैं। कवित्वशक्ति के साथ ही साथ लेखनशक्ति भी बड़ी प्रबल है और जैन मार्ग-प्रभावना तथा धर्म-प्रचार के लिये बड़ी उत्कंठा रखते हैं और उत्साहपूर्वक सतत प्रयत्न शील रहते हैं। उन्होंने यह निबंध लिखने के लिये जो परिश्रम उठाया है, उसके लिये धन्यवाद के पात्र हैं । मुझे आशा है कि पाटकवृन्द इस निबंध को आद्यन्त पढ़कर जैनधर्म का रहस्य समझने के साथ ही साथ आत्मविकास का यथार्थ लाभ उठावेंगे। श्री पुडलतीर्थ Red-Hills धर्मानुरागी P.O. Polal(Madras) ऋषभदासः Dated 1-1.1954 For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूमिका एक साधारण व्यक्ति की बात तो जाने दीजिये; पढ़े-लिखे और भारतीय साहित्य से परिचय का दावा करनेवाले व्यक्ति भी जैन-साहित्य के सम्बन्ध में जो धारणा रखते हैं, उसकी अपेक्षा जैन-साहित्य कहीं अधिक विशाल है। साहित्य, व्याकरण, दर्शन, न्याय, गणित, ज्योतिष, कहिए ज्ञान का कोई भी अंग जैन-आचार्यों की लेखनी से अछूता नहीं रहा । जहाँ तक ज्ञान का सम्बन्ध है, अपने आचार-विचार में सुदृढ़ रहने पर भी, जैन-आचार्यों ने ज्ञानोपासना में कभी अपनी दृष्टि संकुचित नहीं रखी-जैनेतर ग्रन्थों पर भी उन्होंने अपनी लेखनी उठायी है, उनकी टीकाएँ लिखी हैं और जैनेतर शास्त्रों को भी अपने भंडारों में शताब्दियों तक रक्षा की है। इन बाद के रचे गये जैन-ग्रन्थों के अतिरिक्त जैन-सिद्धान्तों के मूल प्रमाण-रूप आगम भी ४५ हैं-११ अंग, १२ उपांग, ६ छेद, ४ मूल, २ चूलिका तथा १० प्रकीर्णक । इन पर नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य तथा टीकाएँ हैं। इस प्रकार सब मिला कर पूरा जैन-साहित्य इतना विशाल है कि, उसके सर्वांग ज्ञान को कौन कहे, एकांगी ज्ञान भी पूर्ण रूप से प्राप्त करना एक बड़े परिश्रम और अध्यवसाय का कार्य है। जैन-धर्म की यह विशेषता है कि, वह इसी भारतवर्ष के आर्यक्षेत्र में उद्भूत हुआ, यहीं उसके अपने अच्छे-बुरे दिन देखे और समय-समय पर जब भी दीप धीमा हुआ, यहीं उसके २४ तीर्थङ्करों ने उसे पुनः प्रदीप्त किया ! अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी के काल में भारत में श्रमण-सम्प्रदाय से सम्बन्धित ५ धर्म थे, उनमें से एक बौद्धों को छोड़कर शेष सभी विलुप्त हो गये और वैदिकों ने उनको आत्मसात कर लिया। रही बौद्ध-धर्म की बात-उसे भी भारत-भूमि छोड़ना पड़ा और विदेशों में जाकर देश-काल के अनुरूप अपने में परिवर्तन करना पड़ा। पर, जैन-धर्म ही एक ऐसा For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकेला धम रहा, जो समय के सैकड़ों उतार-चढ़ाव को देखकर भी इसी भूमि में फलता-फूलता रहा। उसकी इस स्थिरता का कारण निश्चय ही उसका साहित्य, उसकी विचारधारा, उसकी कर्मठता और उसका दर्शन है। अतः यदि कोई व्यक्ति सचमुच भारत के सांस्कृतिक इतिहास का अध्ययन करना चाहे तो उसके लिए जैन-दर्शन और साहित्य का अध्ययन, अनिवार्य होगा। पर, एक तो अपनी विशालता के कारण और दूसरे प्राचीन ग्रन्थ संस्कृत तथा प्राकृत में होने के कारण, साधारण व्यक्ति के लिए उससे परिचय प्राप्त करना थोड़ा कठिन कार्य है । अतः आज सहस्रों ऐसी सुलभ और सरल प्रामाणिक पुस्तकों की आवश्यकता है, जिसके द्वारः ज्ञान के गूढ़ रहस्य जन-साधारण तक पहुँच सकें। मेरे पूज्य मित्र पंन्यास जी श्री कीर्तिविजय गणिवर जी महाराज की यह कृति वस्तुतः इसी लक्ष्य से लिखी गयी है। उनमें जहाँ एक ओर शास्त्र के अभ्यास के फलस्वरूप विद्वत्ता है, वहीं साधु होने के फलस्वरूप परम्परा ज्ञान भी है। अतः पुस्तक अति संक्षिप्त होते हुए भी, जहाँ तक जैनदर्शन अथवा सिद्धान्त का प्रश्न है, अपने छोटे-से-छोटे, विवरण तक में पूर्ण प्रामाणिक है । उन्हें पढ़-समझ कर पाठक कह सकता है कि, अमुक बात ऐसी है और उसके कहने पर कोई भी विद्वान् उंगली नहीं उठा सकता । ____ पुस्तक हिन्दी में प्रकाशित हो रही है, यह हिन्दी का सौभाग्य है। हिन्दी में श्वेताम्बर-साहित्य नगण्य है और जो है भी, उससे परिचय बहुत कम लोगों को है । प्रस्तुत पुस्तक निश्चय ही इस कमी को दूर करेगी और लोगों को जैन-दर्शन समझने में सहायक होगी। दफ्तरीबाड़ी, चिंचोली, मलाड, बम्बई ६४। --ज्ञानचन्द चैत्र शुक्ल १३, सं० २०१६ वि० विद्याविनोद For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महा प्रभाविक नवकार मंत्र नमो अरिहंताणं नमो सिद्धाणं नमो आयरियाणं नमो उवज्झायाणं नमो लोए सव्व साहूणं ऐसो पंच नमुक्कारो, संव्व पावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवाइ मंगलं ॥ ऊपर लिखे अनुसार नवकार मंत्र के नव पद हैं, यह नवकार मंत्र चौदह पूर्व का सार रूप है। यह मंत्र अचिंत्य प्रभावशाली है। इसके प्रभाव से देव और दानव भी आकर्षित होते हैं । सर्व मनोरथ फलते ( पूर्ण होते ) हैं । विघ्न और विपदाएँ दूर सुदूर भाग जाती हैं । उपसर्गों का नाश होता है । यह चिंतामणिरत्न, कल्पवृक्ष तथा कामधेनु से भी अधिक इच्छाओं को पूर्ण करता है । इस महामंत्र के ध्यान से क्लिष्ट कर्मों का नाश होता है । सर्व प्रकार के पाप का नाश होता है । इस लोक और परलोक में सुख-सामग्री और अपूर्व ऋद्धि-सिद्धि मिलती | निकाचित और निबिड़ कर्मों की निर्जरा होती है । जन्म-जन्म के पाप धुल जाते हैं । जन्म-मरण की बेड़ी कट जाती हैं । दुर्गति के घोर दुखों से आत्मा बच जाती है । श्रात्मा कर्म रहित होकर शुद्ध तथा निर्मल बनती है । प्रातःकाल के स्मरण से सारा दिवस मंगलय बीतता है । जनमते ही सुनाया जाये तो जन्म सफल For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *Clerkle * Clexistercle * Cle*ster Sle*se* *OCIOX* * Alert.kor** * Kn) होता है। मरते समय स्मरण करने पर सद्गति प्राप्त होती है। () इसके माहात्म्य का जितना वर्णन किया जाये थोड़ा है। नवकार- (D * मंत्र के एक-एक अक्षर के जाप से भी असंख्य वर्षों के घोर कर्मों * का नाश होता है । मन, वचन और काया से एकाग्रतापूर्वक इस मंत्र का खूब जाप करो, इसके जाप में लवलीन बनो, तन्मय बनो । निरंतर इसी की रट करो। चलते-फिरते, सोते-बैठते इसी ड का स्मरण करो । फलकी आकांक्षा न रखो.. अात्मिक गुणों की पराकाष्ठा पर पहुँचे हुए सर्वोत्कृष्ट सिद्ध तथा साधक गुणी पुरुषों की इसमें स्तुति है, जिसमें गुण मात्र की पूजा ही समायी हुई है, जो व्यक्तित्त्व-पूजन की संकीर्णता से दूर ए है तथा महासागर के समान विशाल है। आत्मा के उत्तरोत्तर * विकास करने के संसार में जो ऊँचे पद हैं-उन पदों का ही Ko इसमें प्रतिपादन है। इससे यह महामन्त्र सबके लिए समान रूप से श्रेयस्कर और कल्याणकारी है। * to@ter*Clerter* ter* * * For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नमो जिणाणं आहत-धर्म-प्रकाश जैन-धर्म विश्व के धर्मों में जैन-धर्म का स्थान सबसे अधिक महत्वपूर्ण है । जैनधर्म अनादि कालीन है। यह बात हम 'जैन' शब्द से ही समझ सकते हैं । जैसे कि, 'जिन' अर्थात् 'राग-द्वेषादीन् शत्रून् जयतीति जिनः' राग-द्वेषादि अंतरंग शत्रुओं पर जिसने विजय प्राप्त की है अर्थात् जिस आत्मा ने उन्हें जड़मूल से नष्ट कर डाले हों, वही आत्मा 'जिन' कहलाता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि वीतराग, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान परमात्मा जिन कहलाते हैं । ___उनके द्वारा प्ररूपित-उपदिष्ट धर्म ही जैन-धर्म कहलाता है । और, इसीलिए उनका अनुयायी वर्ग 'जैन'-रूप से पहचाना जाता है। 'जिन' शब्द व्यक्तिवाचक नहीं; परन्तु जातिवाचक है। जातिवाचक शब्द अनादि कालीन होते हैं। जब 'जिन' शब्द अनादि कालीन है तो जिन-प्ररूपित धर्म भी अनादि कालीन है; यह बात स्वयंसिद्ध है । जिस प्रकार ईसा मसीह ने ईसाई-धर्म शुरू किया, गौतम बुद्ध के द्वारा बौद्धधर्म का प्रारम्भ हुआ, इसी प्रकार इतर धर्मों की भी किन्हीं विशिष्ट व्यक्तियों के द्वारा ही उत्पत्ति हुई हैं। परन्तु, जैन धर्म को किसी एक व्यक्ति ने शुरू नहीं किया । यदि उसे किसी एक व्यक्ति ने शुरू किया होता तो वह बौद्ध-धर्म की तरह महावीर-धर्म, ऋषभ-धर्म इत्यादि संज्ञा द्वारा पहचाना जाता; परन्तु यह महावीर-धर्म या ऋषभ-धर्म आदि शब्दों से न पहचाना जाकर जैन-धर्म से ही पहचाना जाता है; इससे हम यह समझ सकते हैं कि, जैन-धर्म अनादि है। For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन धर्मानुसार काल के दो विभाग होते हैं-(१) उत्सर्पिणी और (२) अवसर्पिणी । उत्सपिणी और अवसर्पिणी काल में २४-२४ तीर्थंकर होते हैं। तीर्थंकर 'जिन', 'अरिहंत' 'जिनेश्वर' इत्यादि नामों से पहचाने जाते हैं। भूतकाल में इस प्रकार की अनंत चौबीसियाँ हो गई हैं और भविष्य में भी इस प्रकार की अनंत चौबीसियाँ होंगी । तीर्थंकर देव की आत्माएँ जन्म-काल से ही विशिष्ट ज्ञानी और महासौभाग्यशाली होती हैं। इन तीर्थंकर देवों की आत्माएँ राज्यपाट का त्याग कर वैभव-विलास को छोड़, स्वयं दीक्षा ( संन्यास ) अंगीकार करती हैं। दीक्षा लेने के बाद वर्षों तक पूर्वसंचित कठिन कमों का क्षय करने के लिए वे घोर तपश्चर्या करते हैं। इस काल में वे कठिन अभिग्रह और विविध घोर प्रतिज्ञाएँ धारण करते हैं। अपने छद्मस्थ-काल में वे भयंकर उपसगों को अपूर्व क्षमापूर्वक सहन करते हैं । सदैव आत्म-ध्यान में लीन रहते हैं । ऐसी उत्कट तपश्चर्या द्वारा जन्म-जन्मांतर के पापों का नाश कर डालते हैं। चिकने कर्मों को भस्मीभूत कर, शत्रु-मित्र पर समभाव रखते हुए, वीतराग दशा को प्राप्तकर केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त करते हैं । यह केवलज्ञान संपूर्ण ज्ञान है। उन ज्ञान और दर्शन द्वारा तीनों लोक केस्वर्ग, मृत्यु और पाताल लोक के तीनों काल के-भूत, भविष्य और वर्तमान काल के समस्त भावों को अखिल विश्व के पदार्थों को तथा क्षण-क्षण में परिवर्तित दुनिया को जानते और देखते हैं । इन संपूर्ण ज्ञानी परमात्मा के ज्ञान से कोई वस्तु अज्ञात नहीं होती । कौन कहाँ से आया ? कहाँ जायेगा ? अनंतकाल के पहले वह किन-किन अवस्थाओं का उपभोग कर रहा था ? कब उसका उद्धार होगा ? इत्यादि वस्तुएँ वे हस्तामलकवत् देखते और जानते हैं । परमात्मा विदेहमुक्त और जीवन्मुक्त इस प्रकार दो तरह के होते हैं । जिसने ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय इन आत्मगुण For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के घातक चार घातीकर्मों का जड़मूल से नाश कर डाला है, ऐसे परमात्मा जीवन्मुक्त चरम शरीरी होते हैं । इस जन्म के बाद में वे जन्म धारण नहीं करते । और, जिसके चार घाती और चार अघाती (नाम-कर्म, गोत्र-कर्म आयुष्य-कर्म और वेदनीय-कर्म ) कर्म ये आठों कर्म जडमूल से नष्ट हो गये हैं, वे विदेह मुक्त परमात्मा अर्थात् सिद्ध-परमात्मा कहलाते हैं । जीवन मुक्त-देहधारी ( जिनेश्वरदेव ) परमात्मा अखिल विश्व के संपूर्ण स्वरूप को जानकर जगत के कल्याण के लिए समस्त संसार को कल्याण का सच्चा रास्ता बतलाते हैं । अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पाठ सिखलाते हैं। आधि, व्याधि और उपाधि-रूप त्रिविध ताप से संतप्त जीवों को अमृतवाणी के प्रवाह द्वारा अपूर्व बोधपाठ प्रदान करते हैं । विश्वशांति का सच्चा संदेश देते हैं। सच्चे सुख का भान कराते हैं । अज्ञान रूपी अंधकार को दूर-सुदूर हटा देते हैं और इन सबके बाद अन्त में मुक्तिपुरी के शाश्वत सुखों को दिलाते हैं। For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आश्चर्यजनक विशालता जैन-धर्म के सिद्धांत वीतराग और सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित है; इसलिए वे ( असंकुचित ) विशाल तथा सत्यमूलक हैं और इसी से उनकी विश्वोपकारिता सिद्ध होती है । यह धर्म छोटे-से-छोटे प्राणी की भी रक्षा करने का आदेश देता है । जैन सिद्धांत का कथन है कि, जगत के सभी प्राणी (जीव ) जीवित रहने की इच्छा रखते हैं । किसी को मृत्यु इष्ट नहीं है । सबको सुख इष्ट है और दु:ख अनिष्ट है । जिस प्रकार अपूर्व ऋद्धि-सिद्धि में मग्न रहनेवाला इन्द्र भी जीवित रहने की आशा रखता है, उसी प्रकार विष्टा में रहने वाला कोट विष्टा में रहकर भी जीने को इच्छा रखता है । दोनों मरने से समान रूप से डरते हैं । इसलिए, मानव मात्र को हरेक प्राणी की रक्षा करनी चाहिए - चाहे वह एकेन्द्रिय हो, दो इन्द्रियों वाला हो, तीन इन्द्रियोंवाला हो, चार इन्द्रियोंवाला हो या पंचेन्द्रिय हो - पशु हो या मनुष्य हो । एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक तमाम प्राणियों की रक्षा करो । पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीव है । जैसी हमारी आत्मा है, वैसी ही सबकी है । जीव का धर्म संकोच विकासशील है । कीड़े की आत्मा और कुंजर की आत्मा में बिलकुल अंतर नहीं है । कुंजर की आत्मा ही कर्मबन्ध के कारण किसी समय कीड़ा रूप हो सकती है, पृथ्वीकायिक जीव, अपकायिक हो सकती है अथवा नरक आदि गतियों का अनुभव कर सकती हैं । इसे हम इस प्रकार कह सकते हैं कि, कर्म-बंध के कारण वही आत्मा एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक जीव-योनि धारण करती है । सबकी आत्मा समान है । इसीलिए, जिस प्रकार हमें दुःख होता है, For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उसी प्रकार सबको दुःख होता है । जिस प्रकार हम सुख की कामना करते हैं, उसी प्रकार सब प्राणी सुख की आकांक्षा रखते हैं। इसलिए, सबकी एक समान रक्षा करनी चाहिए। इसमें ऐसा भेद नहीं करना चाहिए कि, जो हमें बाधा पहुँचाये उसे मारने में पाप नहीं समझा जाये-इस प्रकार का वचन भी हिंसक-वचन है। यह सर्वज्ञ परमात्मा का शासन है। उसकी विशाल दृष्टि यह है कि, यदि कोई भी जीव आत्मा हमारा बुरा करे, हमें दुःख दे; तब भी उसकी रक्षा करो। फिर चाहे वह पशु हो या मनुष्य हो । जैन-धर्म की कितनी विशालता ? कैसी उच्चता ? जिनेश्वर देवों की कैसी अप्रतिम लोक-कल्याण विषयक भावना-सूक्ष्माति-सूक्ष्म प्राणियों के लिए भी रक्षा का उपदेश-बुरा करने तथा बुरा सोचनेवाले की भी रक्षा. तथा भला हो यही एक भावना उसमें समायी हुई है। प्राणी चाहे जिस देश का हो, चाहे जिस योनि का हो, चाहे जहाँ रहता हो, मुर्खातिमूर्ख हो, पर सबकी अपराधियों में भी निकृष्ट अपराधी प्राणी की भी रक्षा करो, केवल यही एक उपदेश सर्वज्ञ परमात्मा जिनेश्वर देव का रहा है और है। ___हमारे पाँव में एक काँटा चुभता है, तो हम हाय-तोबा मचा देते हैं । चिल्लाते हैं तो फिर दूसरे प्राणियों पर अत्याचार कैसे किया जाये ? क्या उन्हें दुःख नहीं होता ? जिस प्रकार हमें दुःख होता है, उसी तरह सचको दुःख होता है । सबसे अधिक बहुमूल्यवान प्राण-जान है । करोड़ों रुपये खर्च करने पर भी गया हुआ जीवन नहीं मिल सकता । ___ मनुष्य दूसरे प्राणियों की अपेक्षा अधिक समझदार और समर्थ है । इसीलिए, उसका यह प्रथम कर्तव्य है कि, वह निर्बल की रक्षा करे । सिर्फ अपने भौतिक सुख के लिए दूसरे प्राणियों को सुख से वंचित करना मानव नहीं पशु-वृत्ति है। __जो प्राणी बेचारे गूंगे हैं, वाणी द्वारा अपने सुख-दुःख को प्रकट नहीं कर सकते, ऐसे निर्बल प्राणियों का अपने स्वार्थ या जिह्वा लोलुप्य के लिए संहार करना भयंकर अन्याय है। इसमें मानवता नहीं, स्पष्ट दानवता है । For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस प्रकार जिनेश्वर देवों ने दया का श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम स्वरूप बताया है। झूठ का त्याग करो ! मित, प्रिय और सत्य बोलो !! झूठ बोलने से मुँह अपवित्र होता है !!! मनुष्य अपना विश्वास खो देता है। झूट भी हिंसा की तरह एक महापाप है । चोरी का त्याग करो किसी को धोखा मत दो, जेबें कतरना, ताले तोड़ना या किसी का धन-माल हजम कर जाना ये सब महान् पाप हैं। मिथ्या दस्तावेज, झूठी गवाही, पाप का उपदेश इन सबका त्याग करो । ब्रह्मचर्य का पालन करो, ब्रह्मचर्य आत्मज्ञान पैदा करने का अमोघ साधन है । देव तथा दानव भी शुद्ध ब्रह्मचारी के दास बनते हैं। उसके वचन की कीमत होती है । संसार में परम पुरुष और उत्तम पुरुष के रूप में उसकी गणना होती है। अधिक संग्रह मत करो, आवश्यकताओं को कम करो, किसी भी वस्तु पर ममता-भाव, मूर्छा, मत रखो-'संतोषी नर सदा सुखी' ! इसलिए, जितनी आवश्यकताएँ कम होंगी उतनी ही सुख-शांति होगी। आधुनिक युग में संपत्ति कौन-कौन से विषम कार्य कर रही है, उससे हम अनभिज्ञ नहीं हैं। इसीलिए जैन-धर्म का परिग्रह-परिमाण व्रत केवल एक देशिक नहीं पर सार्वदेशिक उपकारक है । रात्रि-भोजन का त्याग करो । रात्रि-भोजन से अनेक जीवों की हिंसा होती है । बुद्धि खराब होती है और दूसरे जन्म में दुर्गति में जाना पड़ता है । चलना पड़े तो नीचे भूमि को ओर भली भाँति देख-भालकर चलो। पानी इत्यादि छानकर पिओ । क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि ये सब–भयंकर शत्रु हैं । उन्हें कम करो। ___न तो किसीकी निन्दा करो और न किसी की ईया । आत्मा को पहचानो । व्यर्थ के लड़ाई-झगड़े में मत पड़ो। परस्पर प्रेमभाव रखो, For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किसी का बुरा मत करो। गुणी आत्मा को देखकर प्रसन्न होओ, दुःखी को देखकर उसका दुःख दूर करने की भावना रखो। नीच, अधर्मी या पापी आत्मा के प्रति तिरस्कार वृत्ति न रखकर माध्यस्थ भाव रखो। यदि वह समझ सकता हो तो उसे समझाओ, नहीं तो उपेक्षावृत्ति रखो । सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखो, दुनिया के सब प्राणी हमारे मित्र के समान हैं; इसलिए किसी को मत मारो, किसी का हनन मत करो, किसी को दुःख मत दो और किसी को हैरान या परेशान मत करो। यदि हम दूसरों को दुःख देंगे तो उसके कडुए फल हमें जन्म जन्मांतर में भोगने होंगे और अनेक बार मृत्यु-कष्ट भोगना होगा । इसलिए, सुख की इच्छा रखनेवाले प्राणी को सबको सुखी करना चाहिए। सबको सुखी करने की भावना से हमारी आत्मा पूर्ण सुखी बन सकती है। ___ हमारे पास कम वस्तु हो तो भी उसमें से कम-से-कम कुछ देना सीखो, दान-धर्म को मत भूलो, दीन-दुखियों का उद्धार करो। यदि इन सब गुणों को जीवन में उतारा जाये तो इस अमूल्य मानव-देह को धारण करने की कुछ सार्थकता होगी । दुबारा इस मानव देह की प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है । ऐसे देव-दुर्लभ जीवन को प्राप्त कर, आत्मा को पहचानकर जीवन को आदर्श बनाओ। *** ** For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acha जैन साधु जैन-साधु बननेवाले व्यक्ति हजारों-लाखों की दौलत को, मकान, बाग, बंगला आदि विपुल सामग्री तथा माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-परिवार आदि स्वजन-सम्बन्धियों को छोड़कर उनका मोह दूर कर क्षणभंगुर तुच्छ भोग-विलासों में जीवन बिताने से मुंह मोड़कर मुक्तिमार्ग की साधना के लिए जिनेश्वर-देव द्वारा प्ररूपित संयम के पवित्र मार्ग पर प्रयाण करने के लिए तैयार होते हैं और त्यागी गुरुदेवों के पास दीक्षा (संन्यास) लेते हैं। दीक्षा लेते समय उन्हें पाँच महान् प्रतिज्ञाएँ (महाव्रत) लेनी पड़ती हैं। १. आजीवन छोटे या बड़े चर-अचर किसी भी जीव की हिंसा मन, वचन या काया से नहीं करना, न कराना और न करनेवाले का अनुमोदन करना । इस प्रकार समस्त जीवों की सूक्षातिसूक्ष्म रूप में रक्षा करना उनका प्रथम व्रत है। कहिए, सब जीवों की रक्षा के लिए ही वे संसार का त्याग कर साधु-संन्यासी बनते हैं। गृहस्थाश्रम में ऐसी सूक्ष्म दया का पालन नहीं किया जा सकता। जैन-साधु चाहे जैसा अवसर आये अग्नि का स्पर्श तक नहीं करते । कड़कड़ाती ठंड में भी अग्नि की धूनी नहीं लगाते, घोर गर्मी में पंखे का उपयोग भी नहीं करते। रात्रि के समय दीपक या बिजली की बत्ती का भी उपयोग नहीं करते । २. सदैव के लिए त्रिविध-त्रिविध झूठ का त्याग । ३. चोरी का सर्वथा त्याग ! छोटी-से-छोटी वस्तु का भी मन-वचनकाया से उसके मालिक को पूछे बिना न उपयोग करते हैं, न कराते हैं और न करनेवाले का अनुमोदन करते हैं । ___ ४. ब्रह्मचर्य (अब्रह्म का त्याग) जैन-साधु दीक्षा अंगीकार करते हैंउस समय से यावजीव-जीवनपर्यंत ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। स्त्री का For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९ ) स्पश तक नहीं करते, यदि भूल से कदाचित अकस्मात् स्त्री के वस्त्र का भी स्पर्श हो जाय, तो उन्हें प्रायश्चित्त लेना पड़ता है। जिस मकान में स्त्री रहती हो, वहाँ वे निवास भी नहीं करते । रात्रि के समय उनके निवास स्थान में स्त्रियों के लिए जाने-आने का खास प्रतिबन्ध होता है । वे नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। जैन-साधु गाड़ी, घोड़ा, साइकिल, मोटर, विमान या किसी भी वाहन का उपयोग नहीं करते। देश-देशांतर में वे पाद-विहार कर के जाते हैं। अनेक कष्टों का सामना कर गाँव गाँव और नगर-नगर में समस्त प्रजा को बिना किसी भेद-भाव के आत्महित का उपदेश देते हैं । किसी भी प्रकार के स्वार्थ के बिना जनता को कल्याण का सच्चा रास्ता बतलाते हैं। __छाता-जूता-खड़ाऊँ इत्यादि का उपयोग वे नहीं करते तथा उन्हें किसी वस्तु का व्यसन भी नहीं होता। सदैव ज्ञान-ध्यान, शास्त्र-चिंतन और पठन-पाठन में ही काल व्यतीत करते हैं । वे भोजन भी स्वयं नहीं पकाते । मधुकरी-वृत्ति से प्रत्येक घर भिक्षागोचरी लेने जाते हैं। निर्दोष आहार-पानी ग्रहण करते हैं । गृहस्थ लोग अपने श्रेय के लिए उन्हें सर्वस्व समर्पण करते हैं । परन्तु, ये त्यागी साधु उन्हें जितनी आवश्यकता हो उतनी ही वस्तु ग्रहण करते हैं। रात्रि को वे अपने पास कोई भी खाने-पीने की वस्तु नहीं रखते । ये अपने सिर के बाल भी प्रसन्नतापूर्वक हाथ से खिंच डालते हैं। शरीर के ऊपर के ममत्व को दूर करने के लिए वे ऐसे कठिन परिपह भी आनंद से सहन करते हैं। सूर्योदय के बाद दो घड़ी (याने ४८ मिनिट) के बाद ही यदि कोई वस्तु मुँह में डालनी हो तो डालते हैं। और, सूर्यास्त के बाद आहारपानी का बिलकुल उपयोग नहीं करते। चाहे जैसी गर्मी हो वे रात्रि के समय प्यास लगने पर भी पानी नहीं पीते। ऐसी कठिन प्रतिज्ञाओं का पालन जैन-साधु सहर्ष करते हैं। For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १० ) जैन-साधुओं का जीवन बहुत ऊँचा होता है। जगत के कल्याण के लिए ही उनका सारा जीवन होता है । जैन-साधु सब प्राणियों की रक्षा के लिए ही ऐसी उत्कट प्रतिज्ञाएँ ग्रहण करते हैं। ऐसे महान् त्यागी संतसाधु आज भी सैकड़ों की संख्या में इस पृथ्वीतल पर पैदल प्रवास कर रहे हैं और संसार पर महान् उपकार कर रहे हैं। आज जगत में जो कुछ शान्ति-सुख और आबादी दृष्टिगोचर होती हैं, उसका सारा श्रेय उन त्यागी साधुओं और तपस्वी पुण्यात्माओं को है । ***** For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्मा आधुनिक युग में अनेक व्यक्ति धर्म की आराधना में परमात्मा की भक्ति-सेवा-उपासना में शिथिल हो गये हैं। उसका मुख्य कारण यह है कि, वे आत्मा का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। उन्हें आत्मा के अस्तित्व के विषय में संदेह है और जिसे एक बार आत्मा के विषय में संदेह हो जाता है, वह फिर पुण्य, पाप और परलोक जैसी चीजें तो क्यों मानने लगेगा ? अनात्मवादी की दलील यह है कि, दूसरी वस्तुएँ जैसे आँखों से दीख पड़ती हैं, वैसे आत्मा नहीं दिखाई देती और जो वस्तु दृष्टिगोचर नहीं होती, उसे किस प्रकार माना जाय ? उसके जवाब में ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि, आत्मा का प्रत्यक्ष सर्वज्ञ द्वारा होता है । आत्मा स्वयंसिद्ध वस्तु है; परन्तु अरूपी होने से वह हमें दिखाई नहीं देती। पवन को हम कहाँ देखते हैं ? फिर भी यदि कोई पूछे कि पवन है या नहीं ? तो कहना होगा कि पवन है; क्योंकि वृक्ष के पत्तों के हिलने आदि से पवन का कार्य दृष्टिगोचर होता है। इसी प्रकार यदि कोई पूछे कि हमारे पितामह और हमारी हजारवीं लाखवीं पीढी हुई या नहीं ? तो उसका भी जरूर उत्तर मिलेगा कि-हाँ हुई। और, उसके बाद फिर दूसरा प्रश्न पूछा जाय कि तुम्हारी हजारवीं या लाखवीं पीढ़ी कहाँ दिखाई देती है । उसका तो कुछ नामो-निशान भी नहीं है । तब दृष्टिगोचर नहीं होने पर भी हम अपनी हजारवीं-लाखी पीढ़ी को भी मानते हैं, क्योंकि हमारा अस्तित्व है, उसीसे हमारी पीढ़ियों की भी सिद्धि होती है । क्या वृक्ष का मूल भी कहीं दिखाई देता है ? फिर भी वह है या नहीं इसके उत्तर में कहना होगा कि, मूल है । मूल के बिना For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२ ) वृक्ष, पत्ते, फूल, फल इत्यादि कैसे सम्भव हो सकते हैं । वृक्ष-रूपी कार्य का किसी कारण के बिना संभव नहीं हो सकता; इसलिए हम मानते हैं कि उसका कारण मूल होना आवश्यक है। इस प्रकार हम कार्य से उसके कारण को समझ सकते हैं । इसी तरह आत्मा का कार्य भी जीवित मनुष्य में दृष्टिगोचर होता है। जीवित मनुष्य जिस प्रकार हिलता डुलता है, क्रिया करता है, चेष्टा करता है, विचार करता है, भूत-भविष्य सम्बन्धी उहा-पोह करता है, भूत-भविष्य सम्बन्धी विचार और कल्पनाएँ करता है; ये सब क्रियाएँ मृतक व्यक्ति में नहीं होती । एक मिनट पहले जिस जीवित मनुष्य में हिलना-चलना आदि सब क्रियाएँ दृष्टिगोचर होती थीं, मरने के बाद तुरन्त एक क्षण में मृतक व्यक्ति निष्क्रिय हो जाता है। इस प्रत्यक्ष उदाहरण द्वारा हम समझ सकते हैं कि, जीवित मनुष्य में कार्य आत्मा का है और मृतक में से आत्मा चली गयी; इसलिए तब उसे कुछ भी प्रतीत नहीं होता। इस प्रकार आत्मा का कार्य हमें प्रत्यक्ष दिखाई देता है। इस दृष्टांत द्वारा हम आत्मा को अच्छी तरह समझ सकते हैं। __शरीर आत्मा का घर है। घर में रहनेवाला घर से भिन्न होता है । घर या प्रासाद गिर जाये अथवा किराये के मकान की अवधि पूरी होने पर उस मकान में रहनेवाला घर छोड़ या उसे खाली करके दूसरी जगह रहने लगता है, उसी प्रकार इस शरीर में आत्मा के रहने की अवधि समाप्त होने पर आत्मा कर्म के अनुसार दूसरे स्थान पर बाँधे हुए आयुष्य के अनुसार-जाता है। दूसरे जन्म में जाने पर वहाँ दूसरा शरीर धारण करता है । वहाँ पर भी फिर अवधि पूरी होने पर तीसरे जन्म में आत्मा जाती है । वहाँ तीसरा शरीर धारण करती है। इस प्रकार अनादि काल से कर्मानुसार जन्म-मृत्यु की परम्परा चलती रहती है। जिस प्रकार तलवार से म्यान भिन्न होती है, उसी तरह देह से भी आत्मा भिन्न है। जिस प्रकार दूध में घी विद्यमान होने पर भी घी दिखाई For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १३ ) नहीं देता, प्रयोग द्वारा तैयार किये जाने पर ही घी दिखाई देता है, उसी प्रकार आत्मा केवलज्ञान और केवलदर्शन अर्थात् सम्पूर्ण निर्बाध ज्ञान और सम्पूर्ण निर्बाध दर्शन द्वारा जानी जा सकती है । ज्ञान-रूपी कार्य आत्मा का ही है, चेतन का ही है, जड़ का नहीं । जड़ में ज्ञान का लवलेश भी नहीं होता । शरीर भोग्य है, उसका भोक्ता कोई न कोई अवश्य होना चाहिए। वही भोक्ता आत्मा है, भोग्य से भोक्ता अलग होता है। मैं कौन हूँ-यह प्रतीति भी आत्मा की सिद्धि करती है। स्तंभ, पाट आदि किसी भी जड़ वस्तु में अहंपने का प्रतिभास नहीं होता । जब शरीर में आत्मा होती है, तभी वह 'मैं हूँ' तथा 'मैं सुखी या दुःखी हूँ' इत्यादि-इत्यादि बोलती है । क्योंकि, ज्ञान आत्मा का ही गुण हैं, जड़ का नहीं। ___ पर जब शरीर में से आत्मा निकल जाती है, तब मृतक को 'मैं हूँ' का भास नहीं होता । इसलिए शरीर भिन्न वस्तु और आत्मा उससे भिन्न वस्तु है । ___जैसे खिड़की में खड़ा रहनेवाला मनुष्य खिड़की से भिन्न है । उसी प्रकार शरीर और शरीर में रहकर समस्त वस्तुओं को देखनेवाली आत्मा दोनों परस्पर पृथक हैं। लोग कहते हैं, आँख देखती है; पर आँख नहीं देखती-आत्मा देखती है। मृतक व्यक्ति में भी जीवित व्यक्ति की तरह बड़ी-बड़ी आँखें होती हैं, फिर भी मुर्दा क्यों नहीं देखता ? बात इस दृष्टांत से स्पष्ट है और हमें बरबस स्वीकार करना पड़ेगा कि आँख नहीं देखती थी; पर जीवित व्यक्ति में शरीर व्यापी आत्मा थी, वह देखती थी । आँख साधन है । जिस प्रकार मकान में से खिड़की या दरवाजे द्वारा मनुष्य बाहर देखता है, उसी प्रकार मनुष्य आँख द्वारा देख सकता है। ऐसे दृष्टांतों से हम समझ सकते हैं कि, आँख इत्यादि इन्द्रियाँ भिन्न वस्तु हैं और आत्मा उनसे अतिरिक्त भिन्न वस्तु है। जिस प्रकार अरणी की For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १४ ) लकड़ी में अग्नि और दूध में घी दिखाई न देने पर भी उनके अस्तित्व को स्वीकार करना पड़ता है, उसी प्रकार शरीर में आत्मा का अस्तित्व सिद्ध है। जब आत्मा अपने स्वरूप को पहचान लेती है तब वह धर्माचरण से लीन होती है और जब कर्मों का भेदन कर डालती है, तब जन्म-मृत्युरहित बनती है । वह अमर आत्मा मोक्ष के स्थान में शाश्वत और सतत अखंड सुखोपभोग करनेवाली अनन्त सुखी बनती है। इस प्रकार आत्मा अनेक प्रमाणों से भी सिद्ध है। आत्मा स्वयं वेद्य होने से भी सिद्ध वस्तु है, इस लोक को छोड़कर परलोक में जानेवाली है। इस शरीर में भी वह परलोक से आयी है और आयुष्य-कर्म समाप्त होने के बाद यह शरीर छोड़कर दूसरे शरीर में जानेवाली है, यह बात भी सुनिश्चित है । आत्मा अमर, अखंड और अविनाशी है, फिर भी कर्म के.अधीन होकर उसे जन्म-मरण धारण करने पड़ते हैं, संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है, दुखी होना पड़ता है, अन्त में कर्मों का नाश होने पर वह अपने मूल रूप में आकर पूर्ण बनती है। परमात्मा-स्वरूप बनती है । वैसी पूर्ण बनी हुई, आत्मा को परमात्मा कहते हैं । For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह जगत कितनी विचित्रताओं से परिपूर्ण दिखाई देता है । इन सब विचित्रताओं का मूल कारण 'कर्म' है। यदि कर्म-जैसी वस्तु न होती, तो यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाली विचित्रता भी न होती । एक राजा, एक गरीब, एक सुखी, एक दुःखी, एक रोगी, एक निरोगी, एक काला, एक गोरा, एक स्थूल, एक पतला, एक सेठ, एक नौकर, एक मूर्ख, एक बुद्धिशाली, नीचा, ऊँचा, लूला, लंगड़ा, अंधा, बहरा, सुंदर और कुरूप इन सब विचित्रताओं के पीछे कुछ कारण है । उन विचित्रताओं के पीछे 'कर्म' नामक एक महासत्ता काम कर रही है और उसी के फलस्वरूप जगत इतनी अधिक विचित्रताओं से परिपूर्ण दिखाई देता है ! ____ कर्म के अणु अखिल विश्व में निबिड़तम रूप से भरे हुए हैं । यद्यपि वे अदृश्य हैं फिर भी हम उनके कार्य से उन्हें जान सकते हैं । एक समय लोग ऐसा कहते थे कि, हिटलर किसी भी समय पराजित नहीं हो सकता । उसकी विजय के डंके चारों ओर बज रहे थे, फिर भी आज उसका नामो-निशान तक नहीं रहा और जिसका 'ब्राडकास्ट' सुनने के लिए एक समय हजारों-लाखों आदमी दौड़ पड़ते थे, आज उसकी वाणी सुनने के लिए कोई तैयार नहीं। बड़े-बड़े राजाओं के सिंहासन हिल उठे, अभिमान में चूर न जाने कितने रुस्तम आनन्-फानन में जमीनदोज हो गये । इन सबका मुख्य कारण कौन ! कर्म ।। एक ही माता के उदर में से एक साथ पैदा हुए युगल में भी एक मूर्ख और एक बुद्धिशाली, एक धनिक और एक गरीब, एक काला और एक गोरा पैदा होता है, इसका क्या कारण ? गर्भ में तो किसी ने किसी प्रकार के ऐसे कर्म नहीं किये थे, फिर भी इतनी अधिक विचित्रता क्यों ? For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इससे भी हम समझ सकते हैं कि, एक साथ पैदा होने पर भी, पूर्व भव के कर्म के परिणाम-स्वरूप इस प्रकार की अद्भुत् विचित्रता दिखायी देती है। ____ जब आत्मा किसी अन्य स्थान से आयी है, तब यह भी निश्चित है कि, अपने कर्मानुसार वह कहीं अन्यत्र जानेवाली है।। _आत्मा अमर है, अखण्ड है, अविनाशी है। जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्र जीर्ण होने पर नवीन वस्त्र पहनता है और पुराने वस्त्रों को उतारकर फेंक देता है, उसी प्रकार यह आत्मा एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण करती है। शरीर बदल जाने पर भी यह आत्मा वह की वही रहती है । वह आत्मा कर्मानुसार विविध गतियों में परिभ्रमण करती है और अनेक प्रकार की यातनाओं-पोड़ाओं की भोग बनती है । पर, इतना होते हुए भी मनुष्य देवों के लिए भी दुर्लभ मनुष्य-जन्म को प्राप्त करके भी अनेक प्रकार के कुकर्म करता है । हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार, अनीति, बुराई, ईर्ष्या और निन्दा, विकथा द्वारा अशुभ कर्मों को संचित करता है । ये कर्म आत्मा के साथ क्षीर-नीरकी तरह एकाकार हो जाते हैं। परिणामस्वरूप आत्मा को अनेक जन्म-जन्मान्तरों में असह्य दुःख सहन करने पड़ते हैं। ____मनुष्य वर्तमान काल का विचार करता है, परन्तु भविष्य का विचार नहीं करता । संकुचित दृष्टि व्यक्ति को यह खबर नहीं कि, केवल पाँच-पचास वर्ष की छोटी-सी जिंदगी के लिए, मान-सम्मान के लिए और बड़ा कहलाने के लिए वह धर्म-कर्म के साथ ही साथ आत्मा तक को भूल जाता है । परिणाम स्वरूप उसी आत्मा को उसके कर्मों के कड़ए फल चखने पड़ते हैं । भविष्यकाल अनन्त है । एक छोटे से जीवन में क्षणिक तुच्छ सुखों के लिए प्राणी असंख्यकालीन दुःखों की परम्परा अपने ऊपर लाद लेता है। कितनी अधिक मूर्खता ? मनुष्य अपनी बुद्धि के घमण्ड में मरा जाता है। गर्विष्ट होकर जो For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १७ ) मन में आता, वह बकता रहता है। इस जीवन में तो एक-एक मिनट का वह विचार करता है, परन्तु एक मिनट के लिए भी यह नहीं विचारता कि इस जीवन के 'ॐ फुट् स्वाहा' होने के बाद क्या होगा ? शरीर में से आत्मा के निकल जाने के बाद क्या दशा होगी ? कहाँ जायेगा ? इसका लेशमात्र भी विचार उसके मन में नहीं उठता। राजमहल, ऐश्वर्य और हुकूमत ये सब केवल इस जीवन तक सीमित हैं। नहीं खाने योग्य अभक्ष्य पदार्थों-जैसे कि मद्य-माँस आदि वस्तुओं से उसने जिस शरीर को पालपोस कर हट्टा-कट्टा बनाया है, वह शरीर अन्त में एक दिन राख होनेवाली है, इस बात को वह भूल जाता है ! ____ अज्ञानी व्यक्ति भोग-विलास में मस्त होकर पशु की तरह जीवन व्यतीत करता है और न केवल इस अमूल्य मानव-देह को निकम्मा बना डालता है वरन् कोटि-कोटि वर्षों के लिए आत्मा को कष्टों में डालता है। जिस स्थान से रस्न इकडे करने चाहिए, वहाँ से वह कंकड़ इकडे करता है। कितनी अधिक अज्ञानता ? मनुष्य को अपने ही कपड़े थोड़े-से भी मैले या गन्दे हों तो अच्छे नहीं लगते, कूड़े-करकट से भरा हुआ घर भी उसे इष्ट नहीं लगता। तो फिर उसे आत्मा की मलिनता पसन्द पड़ना अज्ञानता नहीं तो और क्या है। ___ मनुष्य मकान को बार-बार झाडू से झाड़कर साफ रखता है। अपने शरीर पर रहे हुए मैल को दूर करने के लिए गरम पानी और साबुन के द्वारा खूब रगड़-रगड़कर स्नान करता है और शरीर को स्वच्छ रखता है। कपड़ों को प्रतिदिन धोता और बदलता है । पर, वह इस ओर किंचित् ध्यान नहीं देता कि उससे सबसे निकटतम आत्मा मलिन हो रही है, और उसे शुद्ध करने के लिए वह किंचित् प्रयास नहीं करता । यही सबसे बड़ी अज्ञानता है । शरीर, धन, माल, मिल्कत और स्वजन परिवार आदि सब क्षणिक और विनश्वर हैं। उनके मोह में मनुष्य जीवन बर्बाद करता है और अमर आत्मा को भूल जाता है । For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १८ ) तथ्य तो यह है कि, आत्मा है तो सब है। जब तक आत्मा रहती है तब तक सब उसकी इजत करते हैं, सम्मान करते हैं और सत्कार करते है। मुरदे की क्या कीमत है ? जो आजीवन स्नेह-सत्कार करते हैं वे ही मृत्यु के बाद, हमारे शरीर को अपने ही हाथों से जलाकर भस्म कर डालते हैं। ___आत्मा की उपस्थिति में ही बाग-बगीचे, बंगले, धन-माल आदि सब वस्तुएँ काम आती हैं । पर, जब आत्मा शरीर से निकल जाती है, परलोक में जाती है, तब बड़े-बड़े राजमहल, ऐश्वर्य, धन की राशि, स्वजन-स्नेही और प्यारे-प्रियतम सब यहाँ पर ही रह जाते हैं और अकेली आत्मा सबसे मुँह मोड़कर निकलती है और अपने पूर्वसंचित कर्म भोगती हैं। उस समय कोई स्वजन उसका सहायक नहीं हो सकता। ___ आप पूछेगे कर्म जड़ है, फिर वह चेतन आत्मा को कैसे प्रभावित करता है। इसका उत्तर है कि, जैसे मद्य जड़ द्रव्य होने पर भी आत्मा को बेहोश बनाता है, उसी प्रकार कर्म जड़ होने पर भी आत्मा पर अपना प्रभाव डालकर फल देता है । किये हुए कर्मों से यदि छुटकारा प्राप्त करना हो, शाश्वत शांति प्राप्त करनी हो, पूर्ण सुखी बनना हो और सदैव के लिए अखंड आनन्द में मग्न होना हो, तो केवली-प्ररूपित मार्ग पर चलना चाहिए । सच्चा ज्ञान सीखना चाहिए सच्ची मान्यता पर अटल होना चाहिए और सच्ची क्रिया करनी चाहिए। सब जीवों के प्रति मैत्री भावना का विकास कर अहिंसक वृत्ति रख कर सदाचार, न्याय, नीति और सत्य का पालन करना चाहिए, तथा तपश्चर्याएँ करते रहना चाहिए। इन्द्रियों के गुलाम न बनकर उनका दमन करते रहना चाहिए । आत्मा को पहचानकर आत्म-विकास के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए। इससे आत्मा क्रमशः कर्मों से छूटता जाता है और अंत में कर्म रहित होकर मुक्ति धाम (मोक्ष में ) पहुँच जाता है और वहां पर शाश्वत सुख का भोक्ता बनता है। For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिस प्रकार अनादि काल से खान में रहा हुआ सोना मिट्टी से मिला हुआ होता है, उसी प्रकार आत्मा भी अनादि काल से कम द्वारा लिप्त है । जिस प्रकार सोना खान में से बाहर निकालने के बाद विभिन्न प्रयोगों द्वारा शुद्ध और निर्मल बनता है उसी प्रकार आत्मा भी तप, संयम और दया, दान आदि साधनों द्वारा कर्म से विमुक्त होकर पूर्ण शुद्ध होता है । जो आत्मा कर्म से विमुक्त (रहित) बनती है, वह आत्मा परमात्मा दशा को प्राप्त करती है। ___जीवात्माओं की संख्या अनंतानंत है। सबकी आत्मा भिन्न-भिन्न हैं। यदि सबकी आत्मा एक ही होती, तो एक के सुख से सब सुखी और एक के दुःख से सब दुःखी दीख पड़ते; परन्तु इससे विपरीत ही देखने में आता है । जो व्यक्ति शकर खाता है, उसे ही शक्कर मीठी लगती है अन्य को उसके स्वाद का भास नहीं होता। एक व्यक्ति की मृत्यु होने पर उसके साथ सब नहीं मर जाते । इससे स्पष्ट है कि, स्वभाव-रूप से सब आत्माएँ समान होने पर भी व्यक्तिगत रूप से सब भिन्न-भिन्न हैं। जो-जो आत्माएँ कर्म से विमुक्त बनती हैं, वे सभी परमात्मा बनती हैं। शुद्ध बनी हुई आत्मा को पुनः कर्मों का लेप नहीं होता तथा उसे फिर से अवतार या जन्म लेना नहीं पड़ता। 'बीज के जल जाने के बाद जिस प्रकार अंकुर पैदा नहीं होते, उसी प्रकार कर्म-रूपी बीज के सर्वथा भस्मीभूत हो जाने पर जन्म-मरण-रूपी अंकुर पैदा नहीं होता। तात्पर्य यह है कि, उसे पुनः जन्म या अवतार लेना नहीं पड़ता, वह आत्मा अपने मूल रूप को प्राप्त कर के अजर-अमर बन जाती है। ये परमात्मा बनी हुई आत्माएँ इस शरीर को छोड़कर एक समय-सूक्ष्मातिसूक्ष्म काल-मैं सात रज्जु उँचे उस सिद्धशिला पर पहुँच जाती हैं, जहाँ पर कि अनंत सिद्धात्माएँ निवास कर रही हैं। सिद्ध शिला पर पहुँची आत्माओं का न तो जन्म होता है और न मरण, न उन्हें कभी रोग होता है और न शोक; न किसी For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २० ) का भय होता है और न किसी प्रकार की लेश मात्र भी उपाधि होती है । सिद्धशिला-स्थित समस्त आत्माएँ सदैव के लिए अनंत आनंद-सागर में निमग्न रहती हैं। परमात्मा शब्द ही इस बात का सूचक है कि, जो आत्मा शुद्ध और निर्मल बनती है, वह परमात्मा कहलाती है। इसीलिए, एक ही परमात्मा है, यह बात भी भ्रमपूर्ण हैं । यदि हमारी आत्मा का परमात्मा-पूर्ण और पूर्ण ज्ञानी होना--असम्भव होता तो साधुओं के लिए घर छोड़कर उत्कट तपश्चर्या करने की आवश्यकता नहीं रहती । साधु-सन्त केवल मुक्ति के ध्येय से ही प्रत्येक उत्कृष्ट क्रिया तथा उत्कट तपश्चर्याएँ करते रहे हैं और करते हैं । किसी प्रयोजन के बिना कोई मूर्ख मनुष्य भी किसी काम में प्रवृत्त नहीं होता। इसलिए, बुद्धिशाली और तपस्वी सन्त पुरुष मोक्ष प्राप्ति के लिए जो धार्मिक अनुष्ठान करते हैं, वे यथार्थ हैं। __परमश्वासौ आत्माच परमात्मा–यहाँ 'परम' शब्द 'आत्मा' का विशेषण है । जो आत्माएँ त्यागी संत होती हैं अर्थात् जिनके आचारविचार उत्तम होते हैं, वे ही आत्माएँ अथवा परमात्मा महात्मा-रूप से पहचानी जाती हैं। और, जिनका आचरण निकृष्ट होता है, जो खराब काम करते हैं तथा जो निर्दयी और पापी हैं, उनकी गिनती अधम आत्माओं में की जाती है। परमात्मा-अर्थात् वीतराग, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और सर्वशक्तिमान, पूर्ण सुखी, अखंड आनन्द के भोक्ता, अनंतगुणी और सर्वोपरि पूर्ण शुद्ध आत्मा For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईश्वर की उपासना जैन-दर्शन पूर्ण आस्तिक दर्शन है। जैन लोग जिस प्रकार ईश्वर की उपासना, सेवा, भक्ति करते हैं, वैसी उपासना शायद ही कोई करता होगा। वे परमात्मा की भक्ति में अपना तन, मन और धन सभी समर्पित कर देते हैं। यह बात तो जैन मंदिरों को देखने मात्र से सहज ही स्पष्ट हो जा सकती है। परमात्मा की सेवा से आत्मा परमात्मा बनती है। भ्रमर का ध्यान करते रहने से जैसे कीट भ्रमर बन जाता है, वैसे ही परमात्मा के ध्यान से आत्मा परमात्मा बनती है। आत्मा स्कटिक-जैसी निर्मल है । जिस प्रकार स्फटिक रत्न के पास जिस रंग की वस्तु रखी जाती है, उसी रंग का प्रतिबिम्ब उसमें पड़ता है--वह वैसे रंग का मालूम होता है-उसी प्रकार आत्मा को जैसे-जैसे संयोग प्राप्त होते हैं, वैसी वह बन जाती हैं । राग-द्वेष या मोह के निमित्त प्राप्त होने पर आत्मा रागी, द्वेषी अथवा मोही बनती है तथा अच्छे संयोग प्राप्त होने पर उसमें अच्छी भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। इसलिए, संसारी आत्माओं के लिए अच्छे निमित्तों और अच्छे आलंबनों की सर्वप्रथम और शीघ्रातिशीघ्र आवश्यकता है। और, इसके लिए सर्वोच्च और सुन्दरतम निमित्त परमात्मा की प्रशमरस से परिपूर्ण शांतमुख मुद्रा और वीतरागता का प्रत्यक्ष अनुभव करानेवाली चित्ताकर्षक मनोहर मूर्तियाँ हैं । इन वीतराग परमात्मा की मूर्ति के दर्शन, पूजन और सेवा-भक्ति से आत्मा वीतराग दशा का अनुभव करती है। परमात्मा को किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं होती; परन्तु संसार की मोहमाया से मुक्त होने के लिए भक्तजन तन, मन और धन उनके चरण कमलों For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २२ ) में समर्पित कर देते हैं, और यह भावना भाते रहते हैं कि, "हे प्रभु ! इन सब वस्तुओं के मोह मैं आत्मा जन्म-जन्मांतरों से पागल बनी हुई है, फिर भी किसी जन्म में उसे तृप्ति नहीं हुई। अब इन नुच्छ जड़ पदार्थों की मुर्छा, मोह, माया छोड़कर मैं आप-जैसा वीतराग कब बनूँगा ?" वीतराग का ध्यान करने से आत्मा वीतराग बनती है । क्योंकि, प्रत्येक आत्मा में वीतरागता का गुण कर्म से दबा पड़ा हुआ है। वास्तव में आत्मा का स्वरूप और परमात्मा का स्वरूप एक ही है; इसीलिए हम 'सोऽहं सोऽहं का जाप जपते हैं। "हे प्रभु ! तेरे स्वरूप और मेरे स्वरूप में लेशमात्र भी अन्तर नहीं है। मैं भी परमात्मा स्वरूप हूँ, परन्तु आप कर्म रहित होकर परमात्मपद को प्राप्त हुए जब कि मैं कर्मवश होकर इस संसार में परिभ्रमण कर रहा इस प्रकार की विविध भावनापूर्वक परमात्मा की भक्ति करने से आत्मा सरलता से कल्याण को साध सकती है। जिस प्रकार जिनेश्वर देव को मूर्ति आत्मा के उत्कर्ष के लिए उत्तम आलंबन है, उसी प्रकार धार्मिक पुस्तकें और त्यागी गुरुदेव आदि भी प्रशस्त अर्थात् श्रेष्ठ आलम्बन-रूप हैं । इसलिए उनके सहवास में रहनेवाली आत्मा का परिवर्तन होता है। जो आत्माएँ इस प्रकार आचरण करती हैं, वह सन्मार्ग की ओर प्रयाण करती हैं, उन्हीं का विकास होता है और वे ही कर्मों का ध्वंस करने में समर्थ होती हैं। ****** For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईश्वर का कर्तृत्व अनेक व्यक्तियों की यह मान्यता है कि, 'इस जगत का कर्ता ईश्वर है, सृष्टि का सर्जनहार ईश्वर है; क्योंकि सामान्य व्यक्ति द्वारा इस जगत की रचना होना अशक्य है।' परन्तु, उनकी यह मान्यता भ्रमपूर्ण है । ईश्वर को जगत्कर्ता मानने में अनेक दोष हैं । ईश्वर ने किसलिए जगत की रचना की ? जब जगत नहीं था, तब ईश्वर कहाँ था ? क्या ईश्वर को अकेला रहना अच्छा नहीं लगता था । इसलिए, उसने लीला करने के लिए, जगत की रचना की ? यदि ऐसा कहा जाये, तो ईश्वर बालक-जैसा सिद्ध होगा। ____ यदि कहा जाये कि, इस जगत की रचना ईश्वर ने की तब यह प्रश्न होगा कि, ईश्वर की रचना किसने की ? और, उसके रचनेवाले को फिर किसने बनाया ? इसकी परम्परा चलेगी तो उसका कहाँ जाकर अंत होगा? थोड़ी देर के लिए यदि ऐसा मान लें कि, ईश्वर ने जगत की रचना की तो फिर एक को सुखी, एक को दुःखी, एक को राजा, एक को गरीब, किसी को लूला, किसी को लंगड़ा, किसी को अंधा, किसी को अपंग तथा किसी को हृष्ट-पुष्ट इस प्रकार वैचित्र्य पूर्ण विश्व बनाने का क्या कारण है ? मान्य ईश्वर की दृष्टि में तो सब समान हैं, तब फिर एक को सुखी करना और दूसरे को दुःखी करना क्या ऐसा पक्षपात ईश्वर में हो सकता है ? एक को मारना और एक को जीवित रखना-ऐसा करने मैं ईश्वर के किस प्रयोजन की सिद्धि होती है ? इसके उत्तर में आप ऐसा कहें कि, यह सारी विचित्रता कर्म के कारण है, तो फिर नवीन पैदा हुए जीवों में कर्म कहाँ से आये ! इसलिए, मानना होगा कि, दुनिया अनादिकालीन है, For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २४ ) जीव भी अनादिकाल से है और कर्म भी प्रवाह से अनादिकालीन हैं । जीव नये कर्म बाँधते हैं, पुराने भोगते हैं। इस प्रकार कर्मानुसार आत्मा की भिन्न-भिन्न दशा रहती है । इसलिए ईश्वर का कर्तृत्ववाद सर्वथा कपोलकल्पित है। एक घर में दस आदमी रहते हैं; पर उसके पालन करनेवाले को कितनी उपाधि उठानी पड़ती है; तब सारे संसार की उपाधि में पड़नेवाले ईश्वर को कितनी चिंता रखनी पड़ती होगी। फिर तो ईश्वर को हमारी अपेक्षा अधिक उपाधिवाला गिना जाना चाहिए | और, ऐसे उपाधि युक्त ईश्वर को सुखी कैसे कहा जा सकता है ? ईश्वर यदि समर्थ है, तो उसने सबको एक समान क्यों नहीं बनाया ? कोई ऐसा कहता है कि, फल तो कर्माधीन होते हैं, विचित्रता भी कर्मानुसार होती है तो फिर उससे पूछा जाये कि, तब ईश्वर ने विशेष क्या किया ? जब प्रत्येक आत्मा को कर्माधीन और कर्मानुसार फल मिलते हैं तो फिर ईश्वर को बीच में डालने की क्या आवश्यकता महसूस हुई। इसलिए, ऐसी कल्पनाएँ करने की आवश्यकता नहीं । आत्मा और कर्मों के द्वारा ही सारी सृष्टि है। आत्मा और कर्म अनादि अवश्य हैं पर कर्म-रहित आत्मा के लिए सृष्टि का अंत आता है । जो आत्मा धर्माचरण द्वारा कर्मों का नाश कर डालती है, उस आत्मा की सृष्टि का अंत हो जाता है और वह परमात्मा बनती है ! For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधु-धर्म का पालन करना सामान्य व्यक्ति के लिए अति कठिन है । यह मार्ग अत्यंत दुष्कर है । विरल आत्माएं ही इस उच्चकोटि के मार्ग की आराधना कर सकती हैं। जो आत्माएँ साधु-धर्म का पालन करने में असमर्थ हों, उनके लिए दूसरा मार्ग श्रावक-धर्म अर्थात् गृहस्थ-धर्म बताया गया है। सम्यक्त्व सम्यकत्व अर्थात् सच्ची दृष्टि, सच्ची मान्यता, तत्त्वों के प्रति पूर्ण श्रद्धा अर्थात् परमात्मा के वचन पर पूर्ण श्रद्धा, देव के प्रति देवत्व-भावना, गुरु के प्रति गुरुत्व-भावना, और धर्म में धर्मबुद्धि का होना सम्यक्त्व कहलाता है। १. रागद्वेष आदि दोषरहित वीतराग, सर्वज्ञ, त्रैलोक्य-पूजित, यथार्थ तत्त्वों के उपदेष्टा अरिहंत भगवान् को ही परमात्मा रूप से मानना। २. अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों को पालन करनेवाले, गोचरी अर्थात् मधुकरी-वृत्ति से आहार लेनेवाले और सर्वज्ञ परमात्मा-प्ररूपित धर्म का यथार्थ उपदेश देनेवाले साधुओं को ही गुरु-रूप से मानना । ३. दुर्गति की ओर जानेवाले जीवों को बचानेवाला मार्ग 'धर्म' कहलाता है । वह धर्म दयामूलक है । सर्वज्ञ परमात्मा-द्वारा प्ररूपित धर्म को ही वास्तविक धर्म मानना चाहिए । उपर्युक्त मुदेव, मुगुरु और सुधर्म पर जिसको पूर्ण श्रद्धा होती है, वह 'जैन' कहलाता है। For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गृहस्थ के व्रत जैन-गृहस्थ द्वारा पालन करने योग्य बारह व्रत हैं। उनमें से पहले पाँच को अणुव्रत, ६ से लगाकर ८ तक गुणव्रत और अंतिम चार को शिक्षाव्रत कहते हैं। (१) स्थूल-प्राणातिपातविरमण-व्रत गृहस्थ स्थाबर जीवों की हिंसा का संपूर्ण त्याग कर नहीं सकता। उनके लिए वहाँ तक पहुँचना अशक्य है । इसलिए, गृहस्थ संपूर्ण रूप से दया का पालन नहीं कर सकता; फिर भी उसे निरपराधी हिलने-डुलनेवाले किसी भी त्रस प्राणी को जानबूझकर मारने की बुद्धि से मारना नहीं चाहिए। और, प्रत्येक कार्य को इस प्रकार उपयोगपूर्वक करना चाहिए कि, जिससे स्थावर जीवों की भी हिंसा न हो (स्थावर अर्थात् पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति कायिक जीव)। (२) स्थूल-मृषावादविरमण-व्रत ____ यदि गृहस्थ असत्य भाषण का सर्वथा त्याग नहीं कर सकता हो तो भी उसे ऐसे मिथ्या वचन का तो अवश्य ही त्याग करना चाहिए, जिससे कि दूसरों को आघात पहुँचता हो-जैसे कि झूठी साक्षी, झूठे दस्तावेज, झुठी सलाह या विश्वासघात अथवा ऐसे अन्य अनर्थकारी झूठ का सर्वथा त्याग होना ही चाहिए। For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २७ ) (३) स्थूल-अदत्तादानविरमण-व्रत इसी प्रकार गृहस्थ को चोरी का बिलकुल त्याग करना चाहिए। फिर भी यदि वह कारण विशेष से चोरी का संपूर्ण त्याग न कर सकता हो, तो भी उसे किसी की जेब कतरना, गांठ काटना, किसी की धरोहर को पचा जाना, ताले तोड़ना, खोटे बटखरे या कम अधिक मान-परिमाण रखना, घर में सेंध लगाना, लूट-पाट, धान्य की चोरी और ठगी इत्यादि चोरी का तो अवश्य त्याग करना चाहिए । (४) स्थूल-मैथुनविरमण-व्रत । गृहस्थ यदि ब्रह्मचर्य का सर्वथा पालन न कर सकता हो तो भी उसे परस्त्री का तो अवश्व त्याग करना चाहिए और अपनी स्त्री के साथ भी मर्यादित संयोग करना चाहिए अर्थात् महीने में कुछ दिन तो अवश्य ब्रह्मचर्य का पालन करना ही चाहिए। (५) स्थूल-परिग्रहपरिमाण-व्रत इच्छाओं का निरोध करने के लिए प्रत्येक वस्तु का नियम रखना । धन, धान्य, मकान इत्यादि वस्तुओं का आवश्यकता से अधिक संग्रह नहीं करना । उनका परिमाण करना । यदि व्यापार आदि द्वारा धन की वृद्धि हो जाये तो उसे धार्मिक स्थानों में और दीन-दुःखी की भलाई में खर्च कर देना चाहिए। (६) दिशापरिमाण-व्रत उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम इन चार दिशाओं उनकी मध्यवर्तिनी ईशान, नैऋत्य, आग्नेय, वायव्य चार विदिशाओं तथा उज़ और अधो दिशाओं की ओर जाने-आने का नियम रखना । For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २८ ) (७) भोगोपभोगपरिमाण-व्रत । भोग करने योग्य पदार्थों का नियम रखना-जैसे कि आज इतनी वस्तुओं से अधिक का उपयोग न करना। उसके लिए चौदह प्रकार के नियम बताये गये हैं। पाप परिणामकारक व्यापार नहीं करना, उनमें भी ऐसे व्यापारों का तो मुख्य रूप से त्याग होना ही चाहिए, जिनमें कि हिंसा परिमाण बढ़ जाता हो। जीवन पर्यंत ऐसा नियम बना लेना चाहिए, जिससे खाने-पीने, पहनने, ओढ़ने आदि शरीर के उपयोग में आनेवाली तमाम वस्तु ओं का मर्यादा से अधिक उपयोग न हो । ( ८ ) अनर्थदंड-व्रत ___ दुर्ध्यान नहीं करना। खराब ध्यान से आत्मा मृत्यु के बाद दुर्गति में जाती है। किसी को भी पाप का उपदेश न देना, शस्त्रास्त्र का निर्माण नहीं करना । झूठी कथाओं की रचना न करना, देशकथा, स्त्री-कथा, भोजन-सम्बन्धी कथा और राज कथा का त्याग करना पाप का उपदेश न देना, सिनेमा, सर्कस इत्यादि का त्याग करना । व्यर्थ के पापकर्म न करना | एवं हिंसक प्राणी को नहीं पालना | (९) सामायिक-व्रत चित्त को समाधि में रखने और समता का सच्चा आस्वाद लेने के लिए अमुक समय पर्यंत अर्थात् विधिपूर्वक ४८ मिनट तक समभाव में रहने को सामयिक व्रत कहते हैं । परमात्मा के ध्यान में लीन होना, आत्मविकास में सहायक होनेवाली पुस्तकों का पठन-पाठन करना, व्यापार तथा आरंभसमारंभ का सर्वथा त्यागकर ४८ मिनट तक एकाग्रचित्त से धर्म-ध्यान करना। For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org ( २९ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१०) देशावगाशिक-व्रत साल भर में कम-से-कम एक दिन तो आरंभ समारंभ का सर्वस्व त्यागकर तपश्चर्यापूर्वक दस सामायिक करना । ( ११ ) पौषध-व्रत यदि आजीवन साधु-जीवन स्वीकार न किया जा सकता हो तो भी साधु - जीवन के अभ्यास के लिए साल भर में कम से कम एक दिन तो उपवास आदि तपश्चर्यापूर्वक पौषधत्रत को अंगीकार करना ही चाहिए । इस व्रत के समय आरंभ- समारंभ त्यागकर १५ या १४ घंटे तक समभावपूर्वक ज्ञान ध्यान आदि क्रियाकांड में मग्न रहना चाहिए । (१२) अतिथि संविभाग- व्रत वर्ष में कम-से-कम एक दिन २४ घंटे तक चौविहार उपवासपूर्वक पौषध करना और पौषध के दूसरे दिन एकाशन करना । एकाशन के समय त्यागी गुरु- महाराज को भोजनादि बहराना, उस समय वे जो वस्तु ग्रहण करें उसी वस्तु का उपयोग करना । यदि महाराज का योग न हो तो अपने सधर्मीबन्धु को करते समय वह जिन वस्तुओं का उपयोग करें, उपयोग करना । किसी कारणवश साधु भोजन कराना, उन्हीं वस्तुओं का स्वयं भोजन उपर्युक्त इन बारह व्रतों का जो पालन कर सकता हो, उसे अवश्य इन व्रतों का पालन करना चाहिए, जो बारह व्रतों का पालन करने में असमर्थ हो उसे अपनी सामर्थ्य अनुसार आसानी से पाले जा सकें उतने व्रतों का पालन करना चाहिए । एक भी व्रत का ग्रहण करनेवाला व्रतधारी जैन कहलाता है । और, जो एक भी व्रत का पालन नहीं कर सकते उन्हें सदैव प्रभुपूजन, दर्शन, गुरुवंदन, अभक्ष्य, कंदमूल तथा रात्रि भोजन का त्याग करना, For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३० ) अच्छी पुस्तकों का स्वाध्याय, सधर्मी भक्ति, दीन-दुखियों को यथाशक्ति दान, सामायिक, प्रतिक्रमण, तप-जप और नमस्कार मंत्र का स्मरण इत्यादि नित्यकर्म श्रद्धापूर्वक करने चाहिए। इन आचारों को पालन करनेवाला व्यक्ति भी जैन कहलाता है I और, यदि कुछ भी नहीं हो तो परमात्मा जिनेश्वरदेव ने जो उपदेश दिया है उन सर्वज्ञ-कथित तमाम वचनों पर श्रद्धा रखना । इस प्रकार जिन वचन पर श्रद्धा रखनेवाला भी जैन कहलाता है । ऊपर कही हुई विधि अनुसार क्रिया करनेवाला धीरे-धीरे कर्म के भार को हलका कर सद्गति प्राप्त करता है और अन्त में शिवपुरी के अपूर्व आनंद का अनुभव करता है । केवल इतने ही विवरण से समझ में आ सकता है कि, जैन धर्म कितना व्यावहारिक है । संसार के तमाम प्राणी जैन-धर्म को अंगीकार कर, उसे आचरण में ला सकते हैं । कितने ही इस बात को नहीं समझनेवाले अनभिज्ञ बिना सोचे एकदम बोल उठते हैं कि, जैन धर्म अव्यावहारिक है; परन्तु उन लोगों को पता नहीं कि, जैन-धर्म के सिद्धान्त कितने विशाल हैं, उनकी कितनी उच्चता है और चाहे जैसा अदना से अदना प्राणी अल्प या अधिक परिमाण में उनका आचरण कर सकता है । अन्त में जिसकी जैन-धर्म के प्रति श्रद्धा हो वह भी जैन कहलाता है । जैन धर्म के सिद्धान्तों को विशेष रूप से समझने के लिए उस उस विषय की अनेक पुस्तकों का श्रवण पठन, चिंतन-मनन करना चाहिए । जैन सिद्धांत के अकेले कर्म-दर्शन के ऊपर हो कितने विशालकाय ग्रंथ आज भी मौजूद हैं। ज्योतिष-विज्ञान, कर्म-सिद्धांत, आत्मवाद, परमात्मवाद, आगमज्ञान, न्याय, व्याकरण, छंद, अलंकार, तर्क, आचार, For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३१ ) विचार इत्यादि अनेक विषयों के हजारों की संख्या में ग्रन्थ वतमानकाल में भी उपलब्ध हैं। जिन्हें विशेष जिज्ञासा हो उन्हें उन्हीं विषयों के जैन-ग्रन्थों का अभ्यास करना चाहिए। __यदि मध्यस्थ दृष्टिवाला प्राणी सच्चे त्यागी गुरुओं के पास रह सूक्ष्मतापूर्वक ऐसे अपूर्व ग्रन्थों का अवलोकन करता रहे, तो उसे अवश्य दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है। ** ** For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्यादवाद जैन-सिद्धान्त पर स्यावाद की छाप है अर्थात् जैन-दर्शन में हर सिद्धान्त पर स्यावाद की दृष्टि के विचार किया जाता है। स्यावाद शब्द 'स्यात्' और 'वाद' दो पदों के मिश्रण से बना है । इसमें 'स्यात्' शब्द का अर्थ है 'कथंचित्' अथवा 'किसी अपेक्षा से', यह अर्थ दर्शाता है और 'वाद' सिद्धान्त अथवा पद्धति का द्योतन करता है । इसीलिए 'स्याद्वाद' को 'अपेक्षावाद' भी कहा जाता है। एक ही वस्तु एक दृष्टि से एक प्रकार की दिखती है; पर वही वस्तु भिन्न अपेक्षा अथवा दृष्टि से भिन्न प्रकार की दिखती है। अतः किसी वस्तु को सम्पूर्ण रूप से समझने के लिए अनेक अपेक्षाओं अथवा दृष्टियों को ध्यान में रखना आवश्यक है। स्याद्वाद की यह मान्यता होने के फलस्वरूप उसे 'अनेकान्तवाद' भी कहा जाता है। __ स्याद्वाद, अपेक्षावाद अथवा अनेकान्तवाद को समझने के लिए 'हाल' का अथवा '६ अंधे और हाथी' का दृष्टान्त ठीक-ठीक समझ लेना आवश्यक है। ढाल की दूसरी ओर एक ग्राम में एक वीर पुरुष की मूर्ति स्थापित की गयी। उसके एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में ढाल थी। ढाल एक ओर रुपहली थी और दूसरी ओर सुनहली। एक बार दो यात्री दो भिन्न दिशाओं से मूर्ति के निकट आ पहुँचे और उस मूर्ति पर अपना-अपना मत प्रकट करने लगे। For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३३ ) एक मुसाफिर बोला - "यह मूर्ति कितनी सुन्दर है । और, इसकी रुपहली दाल का क्या कहना !" यह सुनकर दूसरा यात्री बोला -- "यह ढाल रुपहली नहीं, सुनहली है । आप जरा ठीक से देखिए ।" पहले यात्री ने बड़ी सावधानी से ढाल को पुनः देखा बोला --- "यह बिलकुल रुपहली है । सोने का इसमें लेशमात्र अंश नहीं है । दूसरे यात्री का धैर्य टूट गया और बोल पड़ा - "लगता है, तुम अन्धे हो, नहीं तो सुनहली ढाल को रुपहली कहते कैसे ?" इस प्रकार दोनों में बाद-विवाद चल पड़ा और लड़ाई की नौबत आ पहुँची । इतने में ग्राम का एव सभ्रान्त पुरुष उस ओर आ निकला और विवाद का कारण जानकर बोला - " आप लोग व्यर्थ ही झगड़ रहे हो । यह ढाल रुपहली भी है और सुनहली भी है। एक-दूसरे को मिथ्या सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है । आप लोग एक दूसरे की जगह पर जाकर पुनः ढाल को देखें तब ढाल का सही रंग समझ सकेंगे ।" दोनों ने उस सभ्रान्त व्यक्ति का कहना मानकर ढाल को स्थान परिवर्तन करके जो देखा तो उन्हें अपनी भूल समझ में आ गयी । ६ अन्धे और हाथी एक बार एक स्थान पर ६ अन्धे एकत्र हो गये। उन सभों ने हाथी के सम्बन्ध में सुन रखा था; पर कभी उसका साक्षात्कार उन्हें नहीं हुआ था । अतः वे राजा के महावत के पास गये और हाथी को स्पर्ष करके उसका अनुभव करने के लिए उसकी विनती करने लगे । अतः वे स्पर्ष करके हाथो के संबंध पहले के हाथ में हाथी का कान महावत ने उन्हें अनुमति दे दी । में जानकारी प्राप्त करने में जुट गये। आया । वह बोला - " हाथी तो सूप- सरीखा है ।" दूसरे के हाथ में सूँड़ आया । वह बोला- "भई, मुझे तो हाथी साँबेला सा लगता है ।" तीसरे p ३ For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३४ ) का हाथ हाथी के पैर पर पड़ा । अतः उसने कहा – “ हाथी ठीक स्तम्भ - सरीखा है । चौथे ने सूँड़ छुआ और बोला - "यह तो खूँटे जैसा है । " पाँचवें का हाथ पेट पर पड़ा । पेट स्पर्श करके वह बोला- "यह तो पहाड़ की तरह लगता है ।" छठें ने पूँछ छूई और कहने लगा- "मुझे तो यह ठीक रस्सी की तरह लगता है । " हर अन्धा यह समझता था कि, केवल उसकी बात सत्य है और शेष सब झूठ कह रहे हैं । इस प्रकार उन अन्धों में विवाद हो गया । महावत अन्धों की बात ध्यानपूर्वक सुन रहा था । विवाद होता देख कर वह निकट आकर बोला - " अरे भाई, तुम लोग क्यों विवाद कर रहे हो। तुम में से किसी ने पूर्ण रूप से हाथी का साक्षात्कार नहीं किया । तुम सबने उसका एक - एक अंग स्पर्श किया है और उसी ज्ञान के आधार पर हाथी के रूप के सम्बन्ध में अपना-अपना मत व्यक्त करना प्रारम्भ कर किया है। इसी कारण तुम सब विवाद कर रहे हो । मैं तो नित्य हाथी देखता हूँ । अतः कह सकता हूँ कि, हाथी सूप की तरह भी है, साँवेला के समान भी है, रस्सी के समान भी है, खम्भे के समान भी है और खूँटे के समान भी है । " महावत की बात सुनकर उन अन्धों को अपनी भूल का ज्ञान हो गया और वे चुप हो गये । करता इन उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो गई होगी कि, व्यक्ति वस्तु को जिस अपेक्षा अथवा दृष्टि से देखता है, उसी दृष्टि से उसका वह वर्णन है । उसका वर्णन सत्य अवश्य है; पर मात्र उसे दृष्टि में रखकर हम अन्य दृष्टि से उपलब्ध अनुभव को मिथ्या नहीं कह सकते । तात्पर्य यह कि, किसी वस्तु के स्वरूप को ठीक-ठीक समझने के लिए विभिन्न अपेक्षओं से उसे देखना आवश्यक है । For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३५ ) यदि इस रूप से वस्तु को देखा जाये तो जगत् की प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक सिद्ध होगी । एक विशेष उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जायेगी । एक ही व्यक्ति क्षेत्र की अपेक्षा से 'आर्य' है; वर्ण की अपेक्षा से वही 'वैश्य' कहलाता है; ग्राम की अपेक्षा से 'नागोरी' कहलाता है । पिता की अपेक्षा से वही 'पुत्र' है; पुत्र की अपेक्षा से वही 'पिता' है; पत्नी की अपेक्षा से वही 'पति' है और बहन की अपेक्षा से वही 'भाई' है । इन भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से उसी एक व्यक्ति में भिन्न-भिन्न धर्म सम्भव दिखता है । इसमें किसी एक अपेक्षा को ध्यान में रखकर उसका प्रतिपादन करना 'नय' कहलाता है 'नय' में सत्य का अंश होता अवश्य है; परन्तु यदि अन्य धर्मों का निषेध किया जाये तो वह कथन को असत्य कर देता है । पचहत्तर वर्ष का एक वृद्ध पुरुष है । उस वृद्ध पुरुष के पैंतालीस वर्ष का एक पुत्र है और उसके भी पन्द्रह वर्ष का एक पुत्र है । अब यदि उस पैंतालीस वर्ष के मनुष्य को केवल पिता हो कहा जाय तो वह वचन मिथ्या ठहरता है; क्योंकि वह उसके पचहत्तर वर्ष के वृद्ध पिता की अपेक्षा से पुत्र भी है । इसी प्रकार यदि उस पैंतालीस साल के मनुष्य को केवल पुत्र ही कहा जाये तो यह वचन भी मिथ्या होता है, क्योंकि वह अपने पन्द्रह वर्ष के पुत्र की अपेक्षा से पिता भी है । इस प्रकार वह एक ही व्यक्ति पिता भी है और पुत्र भी है । इसीलिए, वस्तु के पूर्ण स्वरूप को समझानेवाला स्याद्वाद है । वस्तु के केवल एक ही गुण या धर्म को देखकर यह वस्तु ऐसी ही है, ऐसा कहना भ्रमात्मक है; क्योंकि उसी समय ऐसे अनेक दूसरे गुणों का सद्भाव रहता है । स्याद्वाद को ठीक तरह से समझ लिया जाये, तो वस्तु का सच्चा स्वरूप जाना जा सकता है । आँखों से दिखाई देनेवाला यह जगत क्या है ? उसकी वस्तुएँ कैसी हैं ? उसका स्वभाव क्या है ? उसके गुणपर्याय कितने For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हैं ? इत्यादि वस्तुओं के सच्चे स्वरूप को समझानेवाला स्याद्वाद है। अहिंसावाद, अपरिग्रहवाद तथा स्याद्वाद इत्यादि जैनदर्शन के सुदृढ़ स्तंभरूप हैं और इसीलिए जगत में जैन-दर्शन सर्वोपरि कहा जाता है | इन सिद्धांतों के कारण ही उसे विश्वधर्म कहा जा सकता है । जैन-दर्शन का अवलोकन करने पर अहिंसा का जो दिग्दर्शन दृष्टिपथ में आता है, वह वस्तुतः मनुष्य को दिङ मूढ बना देता है। जीव किसे कहना ? वह किसमें रहता है ? उसका स्वरूप, भाव दया और द्रव्य दया, हिंसा और अहिंसा का सच्चा पृथक्करण, कर्म दर्शन इत्यादि अपूर्व तत्त्वज्ञान आपको जैन-सिद्धांत में ही प्राप्त होगा। For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir षड्-द्रव्य (१) धर्मास्तिकाय, (२ ) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) पुद्गलास्तिकाय, (५) जीवास्तिकाय और (६) अद्धा समय अर्थात् काल-ये छः द्रव्य कहलाते हैं। १. धर्मास्तिकाय-गमन करनेवाले प्राणियों और गति करनेवाली जड़-वस्तुओं को उनकी गति में सहायता पहुँचानेवाला पदार्थ 'धर्म' कहलाता है । अस्ति अर्थात् प्रदेश और काय अर्थात् समूह । ऐसे पदार्थों के प्रदेशों के समूह को धर्मास्तिकाय कहते हैं। मछली में गति करने का सामर्थ्य है और उसकी जाने की इच्छा भी है; परन्तु वह निमित्त-कारग रूप पानी के बिना गति नहीं कर सकती। पानी के आलम्बन की तरह गति करने में सहायक होनेवाला द्रव्य ही 'धर्मास्तिकाय' है। २. अधर्मास्तिकाय-'अधर्मास्तिकाय' प्राणी को ठहराने में सहायक होता है । यदि किसी स्थान पर सदाव्रत की अच्छी व्यवस्था हो, तो भिक्षुकों की इच्छा वहाँ ठहरने की होती है । ये सदाव्रत भिक्षुक लोगों के हाथ पकड़कर उन्हें वहाँ नहीं ले जाते; परन्तु उस निमित्त को पाकर भिक्षुक वहाँ निवास करते हैं । चलते-चलते यात्री थक गया हो, तो उस समय वृक्ष की छाया की तरह 'अधर्मास्तिकाय' भी ठहरने में सहायक होती है। . ३. आकाशास्तिकाय-इसका गुण अवकाश अर्थात् जगह देने का है । यद्यपि आकाश आँखों या दूसरी इन्द्रियों द्वारा देखा नहीं जा सकता, फिर भी अवगाहगुण द्वारा वह जाना जाता है। लोक-सम्बन्धी आकाश को 'लोकाकाश' और अलोक-सम्बन्धी आकाश को 'अलोकाकाश' कहते हैं। धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय के सहयोग से ही लोक में जीव और For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३८ ) पुदगलों की गति और स्थिति है । अलोक में इन दोनों पदार्थों का सद्भाव न होने से, वहाँ न तो एक भी अणु है और न जीव है । वहाँ लोक में से कोई भी अणु या जीव जा भी नहीं सकता; क्योंकि गति में सहायक और स्थिति करानेवाले उपरोक्त दोनों 'धर्म या अधर्म' द्रव्य वहाँ नहीं हैं | आकाश द्रव्य विस्तार में अनन्त है अर्थात् उसका कहीं अन्त नहीं है । ---- ४. पुद्गलास्तिकाय -- परिपूर्ण होना और गिर पड़ना, अलग हो जाना इत्यादि स्वभाववाले पदार्थ को 'पुद्गल' कहते हैं । पुद्गल का कुछ हिस्सा चाक्षुत्र प्रत्यक्ष होता है और परमाणु जैसे कुछ पुद्गलों की सत्ता अनुमान प्रमाण द्वारा जानी जा सकती है । घड़ा, चटाई, पाट, महल, गाड़ी इत्यादि पदार्थ स्थूल-पुद्गलमय है; क्योंकि ये सब पदार्थ हमारी दृष्टि में आते हैं । इनके सिवाय जो पुद्गल अत्यन्त सूक्ष्म हैं, उनकी सिद्धि अनुमान प्रमाण द्वारा हो सकती है, जैसे परमाणु उसके वाद द्वयक फिर त्रसरेणु इत्यादि शब्द, प्रकाश, छाया, ताप और अन्धकार इत्यादि पुद्गल केही प्रकार हैं । ५. जीवास्तिकाय - चैतन्यस्वरूप आत्मा को जीव कहते हैं । 'मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ', ऐसा अनुभव किसी मृतक को नहीं होता; क्योंकि उस समय उसमें चैतन्य-स्वरूप आत्मा नहीं रहती । वह वर्तमान शरीर को छोड़ अपने कर्मानुसार दूसरे शरीर में चली जाती है । कुल्हाड़ी से लकड़ी काटी जाती है; परन्तु कुल्हाड़ी और काटनेवाला अलग-अलग होते हैं । दीपक से देखा जाता है, परन्तु देखनेवाला और दीपक दोनों भिन्न-भिन्न हैं । उसी प्रकार इन्द्रियों द्वारा रूप, रस इत्यादि ग्रहण किये जाते हैं । परन्तु, इन्द्रियाँ और उन विषयों का अनुभव करनेवाला दोनों अलग-अलग हैं। आत्मा सफेद काली या पीली इत्यादि किसी वर्ण की नहीं होती; इसीलिए उसका इन चर्मचक्षुओं द्वारा प्रत्यक्ष नहीं होता, फिर भी अनुमान - प्रमाण से उसकी सिद्धि होती है । For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३९ ) ६. काल - ढाई द्वीपवर्ती परम सूक्ष्मभाव है । इसके विभाग नहीं हो सकते तथा एक समय - रूप वहाँ होने से इसकी अस्तिकाय भी घट नहीं सकती । एक समान जातिवाले वृक्ष इत्यादि में एक ही समय ऋतु तथा समय के कारण विचित्र परिवर्तन होते हुए मालूम पड़ते हैं । यह वस्तु ही 'काल' की नियामकता सूचित करती है। इस बालक की अवस्था बड़ी है, इस विद्यार्थी की अवस्था छोटी है, यह जानकारी भी काल की सत्ता के बिना कैसे सम्भव हो सकती है ? इसलिए काल के अस्तित्व को स्वीकार करना सुगम तथा शंकाविहीन है । जैन- दर्शन सम्मत इन ६ द्रव्यों पर ही सारी विश्वरचना का आधार है। अब तो वैज्ञानिक भी मानने लग गये हैं कि, हिलने-डुलने तथा ठहरने आदि क्रियाओं के स्वतन्त्रकर्ता जीव और जड़ पदार्थ ही हैं । वे अपने ही व्यापार से हिलते डुलते तथा ठहरते हैं, फिर भी उन क्रियाओं में सहायकरूप से किसी एक शक्ति की अपेक्षा रहती ही है । वैज्ञानिकों का यह मन्तव्य 'धर्मास्तिकाय' के अस्तित्व में प्रबल प्रमाण है । षड्द्रव्य का विचार इतना अधिक विस्तृत है कि, उस विषय के विशालकाय कितने ही ग्रन्थों का निर्माण हो सकता है, परन्तु यहाँ स्थान-संकोच के कारण संक्षिप्त हो वर्णन किया है । For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन-तप जैनों की तपश्चर्या विश्व-विख्यात है। जैनों के उपवास बड़े कठिन होते हैं। इनमें रात्रि या दिन के समय फलाहार, माल, मिष्ठान्न, छास या मोसम्बी इत्यादि कोई भी वस्तु नहीं ली जाती । तपश्चर्या इन्द्रियों का दमन करने के लिए की जाती है । जैन लोग अपनी आत्म-शुद्धि के लिए ऐसी उग्र तपश्चर्या प्रसन्नतापूर्वक महीने-महीने तक करते हैं। ऐसी विधिपूर्वक तपश्चर्या करने से शरीर-शुद्धि भी होती है तथा अनेक असाध्य रोग जड़-मूल से नष्ट हो जाते हैं । उपद्रव दूर होते हैं, अशुभ कर्मों ( पाप ) का नाश होता है, अन्तराय-कर्म नष्ट हो जाता है । आत्मा पुण्यशाली, सुखी और समृद्ध बनती है । हजारों की आधाररूप होती है। ऐसी तपश्चर्या करने से हजारों जीवों को रक्षा होती है; इसलिए तप में दया भी समायी हुई है। तप से धर्म बढ़ता है, पाप घटता है। सुख बढ़ता है और दुःख घटता है, समृद्धि बढ़ती है और दरिद्रता नष्ट होती है। आत्मा प्रभावशाली बनती है; इसलिए प्रत्येक मनुष्य को अपनी शक्ति के अनुसार ऐसी तपश्चर्या करनी चाहिए। लौकिक पर्यों के समय दूसरे लोग अपनी आत्मा का असली स्वरूप भूलकर ऐश-आराम में तल्लीन रहते हैं, अपनी इच्छानुसार जहाँ-तहाँ विचरण करते हैं, पर जैन-पर्यों को यह महत्ता है कि, उस समय वे इन्द्रियदमन, तप, त्याग और संयमी जीवन बिताने का पाठ सिखाते हैं। जैनों का सभी पर्व साधकों को अपूर्व ज्ञान अर्पित करता है । ** ** For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः जैन - सिद्धान्त का आदेश हैं कि, केवल अकेले 'ज्ञान' तथा अकेली 'क्रिया' से मुक्ति नहीं मिलती । अकेला ज्ञान लंगड़ा है और अकेली क्रिया अंधी है । रथ दो पहियों द्वारा ही चल सकता है । मनुष्य दो भुजाओं द्वारा दुर्लघ्य समुद्र को तिर सकता है । उसी तरह आत्मा भी 'सम्यग्ज्ञान' तथा 'सम्यक् क्रिया' द्वारा ही मुक्ति प्राप्त कर सकती है। एक आदमी बम्बई जाने का रास्ता जानता है, पर वह केवल रास्ता जानने मात्र से ही वहाँ तक नहीं पहुँच पाता, वहाँ पहुँचने के लिए उसे चलना होगा, चलने से ही धीरे-धीरे यह अपने इष्टस्थान तक पहुँच सकता है । भोजन का नाम लेने मात्र से क्षुधा की शांति नहीं होती, उसके लिए तो भोजन बनाने की क्रिया करनी पड़ती है । पहले अंगीठी जलाना, उसके बाद भोजन बनाने के बाद भी जब तक खाने की क्रिया नहीं की जाती तब तक उदरपूर्ति नहीं होती । हाथ से निवाला उठाकर मुँह में डालने के बाद ही क्षुधा शांत होती है । उसी प्रकार 'सम्यकज्ञान' पूर्वक सविधि क्रिया की जाये तभी प्राणी मुक्तिपुरी में पहुँच सकता है। क्योंकि, अनंतकाल से आत्मा अज्ञान और असत्प्रवृत्ति द्वारा ही इन कर्मों को बांधता रहा है ! उन्हें नष्ट करने के लिए सम्यग्ज्ञान और सम्यक् क्रिया की नितांत आवश्यकता है । ***** For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रात्रि-भोजन . जैन-शास्त्रों में रात्रि-भोजन विशेष रूप से निषिद्ध माना गया है। रात्रि भोजन करने से अनेक सूक्ष्य तथा बादर और छोटे तथा बड़े जीवों की हिंसा होती है । सूर्यास्त होते ही और संध्या के प्रारम्भ होते ही अंधकार फैलने लगता है । उस समय अगणित सूक्ष्म जीव उड़ने लगते हैं। उन्हें हम बिजली के प्रकाश में भी नहीं देख सकते। ये समस्त जीव जो हमें दृष्टिगोचर नहीं होते रात्रि-भोजन से नाश को प्राप्त होते हैं। रात्रि के समय भोजन करने से कभी-कभी विषाक्त जीव आ जाने से मरण भी हो जाता है। यदि व्यक्ति जूं खा जाये तो जलोदर-रोग हो जाता है। कोड़ी खा जाये तो बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, काँटा-सरीखा सूक्ष्म शूल आ जाये तो भयंकर कष्ट भोगना पड़ता है और कभी-कभी प्राण से भी हाथ धोना पड़ता है। ऐसी स्थिति में रात्रि-भोजन का त्याग शारीरिक दृष्टि से कितना आवश्यक है, यह बात सहज ही समझ में आ सकती है। जिस प्रकार किसी मजदूर को मजदूरी करने के बाद विश्राम की अपेक्षा होती है, उसी प्रकार पेट को भी विश्राम अपेक्षित है। रात्रि भोजन करनेवाला व्यक्ति इस लोक में मृत्यु प्राप्त करने के पश्चात् परलोक में बिल्ली, गृद्ध, कौआ, शूकर, बिच्छी, गुबरैल आदि पशु की योनि में जन्म लेता है। रात्रि भोजन वस्तुतः नरक का द्वार है। चत्वारि नरक द्वाराणि, प्रथमं रात्रि-भोजनं । परस्त्री गमनं चैव, संधानानन्तकायिके ॥ For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४३ ) - नरक के चार द्वार हैं। ( १ ) रात्रि - भोजन ( २ ) परस्त्रीगमन ( ३ ) कच्चे बिना सूखे फल का अचार और ( ४ ) अनन्तकायिक कन्द भोजन करना । मद्य मांसाशनं रात्रौ 3 ये कुर्वन्ति वृथा तेषां भोजनं कंद भक्षणं । तीर्थयात्रा जपस्तपः ॥ - जो व्यक्ति मद्य, मांस, रात्रि - भोजन और कन्द-भक्षण करता है, उसके लिए तीर्थयात्रा, जप और तप सब व्यर्थ है । मारकण्डेय पुराण में मारकण्डेय ऋषि ने कहा है श्रस्तंगते दिवानाथे, आपो रुधिरमुच्यते । श्रन्नं मांस समं प्रोक्तं, मारकण्डेय महर्षिणा ॥ - सूर्यास्त के पश्चात् जल पीये तो वह रुधिर के समान है और अन्न मांस के समान है । मृते स्वजन मात्रेऽपि, सूतके जायते किल । अस्तंगते दिवानाथे, भोजनं किमुक्रियते ॥ - स्वजन की मृत्यु पर जैसे सूतक लगता है, व्यक्ति कुछ खाता नहीं तो फिर दिन के नाथ -सूर्य के अस्त होने पर भोजन कैसे किया जा सकता है। For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४४ ) कहा गया है ये रात्रौ सर्वथाऽऽहारं, वर्जयन्ति सुमेधसः । तेषां पतोपवासस्य, फलं मासेन जायते ॥ जो व्यक्ति रात्रि-भोजन का त्याग करता है, उसे मास में पन्द्रह दिन उपवास करने का फल मिलता है। अतः स्पष्ट है कि, हिंसा के महान् दोष से बचने के निमित्त सुज्ञ जन रात्रि भोजन का त्याग करते हैं। ***** For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आधुनिक विज्ञान आज विज्ञान दिन-दिन आगे बढ़ रहा है। उसकी इतनी बड़ी वृद्धि को देखकर मनुष्य चकित हो जाता है। परन्तु, यदि कुछ देर बैठकर टंडे दिल से विचार करेंगे, तो तुरत मालूम हो जायेगा कि, विज्ञान के बढ़ने से सुख-शांति की वृद्धि हुई या पहले से भी अधिक उत्तेजिक संहारक अस्त्र-शस्त्रों की ? हमें तो उसकी वृद्धि में विनाश के सिवाय और कुछ नहीं दीखता! हमारे ऋषि-महर्षि भी इन सब वस्तुओं को अच्छी तरह जानते थे; फिर भी वे उसके आविष्कार में न लगकर जनता के लिए आत्मविकास का ही सुन्दर मार्ग बता गये, उसका क्या कारण है ? साथ-ही-साथ वे यह भी मानते थे कि-जड़ वस्तु के आविष्कार में भयंकर विनाश है, आत्मा के मूल गुणों का तिरोभाव है, निर्दोष प्राणिओं का संहार है, पैसों की बर्बादी है और अमूल्य समय का व्यर्थ व्यय है। और, यह बात तो प्रत्यक्ष है कि, एक अणुबम-जैसी वस्तु का प्रयोग करने पर लाखों प्राणियों का संहार होता है और उसके निर्माण में लाखोंकरोड़ों रुपयों का खर्च होता है । यदि एक देश ने अणुबम बनाया, तो उसकी प्रतिस्पर्धा में दूसरे देश को वैसा बम बनाना ही पड़ेगा। इसके निर्माण में जितना धन व्यय होता, उसमें से वापिस एक कौड़ी भी नहीं मिलती । केवल संहार और वैरवृत्ति का पोषण होता है। ऐसे आविष्कारों से जगत का न कल्याण होता है और न होने वाला है। इस खर्च को बचा कर यदि दुखी दीन जनों के उद्धार के लिए इस द्रव्य का उपयोग किया जाये तो करोड़ों आदमियों का भला हो सकता है। इस प्रकार की बातें समझने की खास आवश्यकता है । For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यंत्रवाद ने आज हजारों आदमियों को बेकार बना दिया है। मनुष्य आज दीन, हीन और निर्वीर्य बन गया है, इस परिणाम का कारण आज का यह यंत्रवाद ही है । जैसे-जैसे विज्ञान प्रदत्त साधन बढ़ते गये, वैसे-वैसे दुनिया में दुःख और अशांति बढ़ती ही गयी है। प्राचीन काल में देश कितना सुखी और समृद्ध था ? देश में कैसी शांति थी? आज तो चारों ओर भय का आतंक छाया हुआ है । विश्व में अशांति फैली हुई है । पर, मनुष्य को अभी यह समझ में नहीं आता। हमारे ही शास्त्रों द्वारा इन लोगों ने शोध के कार्य को आगे बढ़ाया और इतने बड़े आविष्कार किये हैं; क्योंकि. हमारे पूर्व महापुरुष बड़े ज्ञानी थे। हजारों वर्ष पहले ऐसी यंत्र-सामग्री नहीं थी, ऐसे आविष्कार के ऐसे साधन नहीं थे फिर भी विज्ञान द्वारा जो-जो बातें सिद्ध होकर प्रकाश में आती हैं, उन सब वस्तुओं को ऋषि-मुनि लोग अपने अप्रतिमज्ञान द्वारा देखकर पहले ही कथन कर गये हैं; क्योंकि वे महापुरुष सात्विक महाज्ञानी थे। शास्त्रों में जब हम पहले विमानों की बातें सुनते थे तब अनेक लोग बहुत जल्दी बोल उठते थे कि यह सब गप है। पर, जब साक्षात् विमान उड़ने लगे तब उन्हें मालूम हुआ कि, शास्त्रों में ये महापुरुष जो कुछ लिख गये वह सब पूर्ण सत्य था । जगदीशचन्द्र वसु ने जब प्रयोग द्वारा यह सिद्ध कर बताया कि, वनस्पति में जीव है, प्राणी के स्वभाव के अनुसार वह सुख-दुःख का अनुभव करती है और उसका संकोच-विस्तार होता रहता है, तब कहीं बाहर के लोग वनस्पति में जीव मानने लगे। परन्तु, हमारे प्राचीन जैन-शास्त्रों में तो हजारों वर्ष पहले से ही यह सब बताया गया है। जगदीशचन्द्र बसु ने वर्षों पहले जर्मनी में भाषण देते समय बताया था कि, मैंने वनस्पति में जीव की सिद्धि कर सबके सामने जो यह बात For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४७ ) रखी है, वह भारतवर्ष के लिए कुछ नयी नहीं है। हमारे प्राचीन महापुरुष जैनाचार्य जो कह गये हैं, वहीं मैं कहता हूँ और इसके प्रमाण के रूप में उन्होंने श्री आचारांगसूत्र और जीवाभिगमसूत्र का उदाहरण साक्षीरूप में दिये थे। जलकायिक-जीव, वनस्पतिकायिक-जीव, शब्दशक्ति, रेडियो, एटम बम, फोटोग्राफ-पद्धति आदि अनेक बातें जो पहले शास्त्रों में थीं, उनका ही उन्होंने विज्ञान द्वारा आविष्कार किया है। आजकल का विज्ञान अधूरा है, अपूर्ण है; इसलिए प्रतिदिन नयी-नयी शोधे होती रहती हैं। वैज्ञानिकों को बार-बार अपना सिद्धान्त बदलना पड़ता है। कुछ वर्ष पहले अमेरिका के पास हजारों मोल लम्बा-चौड़ा एक टापू प्रकाश में आया । ये सभी नयी-नयी शोधे ही यह सिद्ध करती हैं कि, वे अभी भी अधूरे और अपूर्ण हैं। ___ अपूर्ण - अधूरे आदमियों पर हम जो पूर्ण विश्वास रहते हैं, वह हमारी कितनी बड़ी विवेकहीनता है। वे केवल कल्पनाओं के आधार पर ही चल रहे हैं। कप्तान स्कोसंबीन ने सूक्ष्मयन्त्र द्वारा पानी के एक बिन्दु में चलने फिरनेवाले ३६४५० जीव सिद्ध कर बताये। जब कि, हमारे ज्ञानी कहते हैं कि, एक बिन्दु में चलने फिरनेवाले जीवों के अतिरिक्त उसमें स्थावर जीव भी असंख्य हैं। पर, वे सब अल्पज्ञानी द्वारा कैसे जाने जा सकते हैं। । आधुनिक डाक्टर भी एक चने जितनी जगह में क्षय के असंख्यतम जीवों का अस्तित्व स्वीकार करते हैं, जबकि सर्वज्ञ का कथन है कि, एक सूई की नोक जितनी जगह में अनन्त जीव निवास कर रहे हैं । उनका ज्ञान कितना अद्भुत् है। किसी यन्त्र या साधन की उन्हें आवश्यकता नहीं थी। सिर्फ केवलज्ञान द्वारा वे सब बतलाते थे। For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ( ४८ ) वैज्ञानिक लोग पहले यह बतलाते थे कि, एक सूई की नोक जितनी जगह में सैकड़ों परमाणु रह सकते हैं। अब वे ही वैज्ञानिक सूक्ष्म दर्शक यन्त्र द्वारा देखकर यह बता रहे हैं कि सूई की नोक जितनी जगह में लाखों अणु भी रह सकते हैं। इसके विपरीत हमारे पूर्वर्षि-ज्ञानी तो ऐसा कहते हैं कि, एक सूई की नोक जितनी छोटी जगह में अनन्तानन्त परमाणु, जीव आदि रह सकते हैं । वैज्ञानिक तो जैसे-जैसे उन्हें साधन मिलते गये, वैसे-वैसे आगे बढ़ते गये और पहले को मिथ्या ठहराते गये । उनका किसी चीज का नवीन ज्ञान होने पर, तदनुसार अपना मत बदलना किसी अंश में ठीक है; क्योंकि अपूर्ण पुरुष पूर्ण बात किस प्रकार कह सकता है ? तब अपूर्ण को पूर्ण मान लेने में कितनी भूल होती है, उसे पाठक सहज ही समझ सकेंगे। ___ इसलिए पूर्ण वस्तु का पूर्ण रूप से स्वीकार करने में तथा ऐसे सच्चे ज्ञान को बतानेवाले परमात्मा की उपासना करने में मनुष्य क्यों भूल करता है, यह समझ में नहीं आता। इसका कारण केवल एक ही है, उसका भवभ्रमण अभी बाकी है । इसलिए वह सच्चे को मिथ्या मानता है । अभी तक दुनियाँ की जितनी खोज हुई है, उन्हींके अनुसार संसार के नक्शे चित्रित किये जाते हैं; परन्तु अब ये नक्शे भी झूठे सिद्ध हो रहे हैं। क्योंकि, अभी कुछ इस प्रकार के ताजे समाचार प्रकाशित हुए हैं कि, अभी तक दूनियाँ की जिनती खोजें हुई हैं, उतनी ही अभी दूसरी दुनियाँ है । तब जैन-शास्त्र तो पुकार-पुकारकर कहते हैं कि, दुनियाँ बहुत विशाल है। असंख्यात योजन प्रमाण हैं । आज का विज्ञान सीमित है, इसलिए उसकी बातें कुएँ के मेंढक के समान है। कुएँ का मेंढक दुनियाँ को कुएँ जितनी ही बतलाता है, पर उसकी बात कोई नहीं मानता । उसी प्रकार अधूरी शोध-खोज करनेवालों की भी ऐसी बातें नहीं मानी जा सकती। For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४९ ) अभी तक पृथ्वी की जितनी खोज हुई है, वह तो समुद्र के एक बिन्दु के समान है। अभी तक तो भारतवर्ष के पूरे छः खण्डों की भी शोध नहीं हुई । इससे भी कितने ही गुने बड़े असंख्य द्वीपों, हजारों देशों और बड़े-बड़े खण्डों का इस पृथ्वी पर अस्तित्व है। परन्तु, इतना विशाल ज्ञान अपूर्ण मनुष्यों को कैसे हो सकता है ? हमारे महापुरुष पूर्ण और पूर्ण ज्ञानी थे; इसलिए उनको कल्पना और शोध-खोज की आवश्यकता नहीं थी ! वे महाज्ञानी अपने पूर्ण ज्ञान द्वारा चराचर विश्व की सब घटनाओं का कथन कर गये हैं। इसीलिए अपूर्ण और अधूरे वैज्ञानिकों की अपेक्षा हमारी अधिक श्रद्धा और विश्वास केवलज्ञानी परमात्मा श्री जिनेश्वर देव के ऊपर है । शोध करनेवाला मनुष्य निश्चयात्मक रूप से ऐसी बात कैसे कह सकता है कि, पृथ्वी गोल है। जिसको पूर्ण ज्ञान नहीं; वह यदि पूर्णता की बातें करता है तो उसकी गिनती पागलों में होती है । ___तब अधूरे और अपूर्ण मनुष्य पर किस प्रकार विश्वास रखा जाये ? न मालूम इस प्रकार के मनुष्य के सिद्धान्त का परिवर्तन कब हो जाए, इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता । ___ इस तरह से सूर्य-चन्द्र स्थिर हैं और पृथ्वी धूमती है, यह बात भी प्रमाणविहीन है। जरा उन्हें पूछा जाये कि, ध्रुव तारा उत्तर दिशा में वहाँ का वहीं स्थिर क्यों रहता है ? यदि पृथ्वी घूमती है तो ध्रुव का तारा भी हमें घूमता हुआ दिखायी देना चाहिए । परन्तु, ध्रुव तो उत्तर में ही स्थिर दीख पड़ता है; इसलिए ये सब बातें कपोलकल्पित है । ___ कदाचित् कोई यह कहे कि, ध्रुव तारा तो सिर पर स्थिर है, इसलिए पृथ्वी चाहे जैसी घूमती हो फिर भी वह वहाँ का वहीं दीख पड़ता है, यह बात भी ठीक नहीं है। क्योंकि, ध्रुव के आसपास छोटे सप्तर्षि के सात तारे हमें बराबर घूमते हुए दिखायी देते हैं। वे भी ध्रुव के पास ही For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५० ) स्थित हैं । उन सात ताराओं की शृंखला घूमती है; इसलिए वह घूमती हुई दीख पड़ती है और ध्रुव घूमता नहीं; इसलिए वह स्थिर दीखता है । यदि पृथ्वी घूमती होती तो अन्य तारों की तरह ध्रुव भी घूमता हुआ दिखाई देता । परन्तु ऐसी बात नहीं है। इसलिए हम युक्ति से भी समझ सकते हैं कि पृथ्वी स्थिर है, वह धूमती नहीं; और यह सिद्धान्त भी अनादिकालीन है कि पृथ्वी स्थिर है। सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र तथा तारागण चक्कर लगाते रहते हैं । और, उसी प्रकार हम अनुभव से भी जान सकते हैं। पृथ्वी को भ्रमशील माननेवालों में भी अब मतभेद उत्पन्न होने लगे हैं। उनमें कुछ लोग अब पृथ्वी को स्थिर मानने लग गये हैं । इसलिए, केवल कल्पना करनेवालों पर परिपूर्ण विश्वास नहीं रखा जा सकता । परिपूर्ण विश्वास केवल सिद्धांत पर ही रखा जा सकता है। सिद्धांत का प्ररूपण सर्वज्ञ परमात्मा ने किया है; इसलिए वह शाश्वत और अविचल है। __ यह सिद्धान्त त्रिकालाबाधित है। इसका किसी भी काल में परिवर्तन नहीं हो सकता । परिवर्तन झूठ का होता है, सत्य का नहीं। सत्य का परिवर्तन होने पर उसकी गणना झूठ में होगी। जैसे दो और दो चार होते हैं, हजारों वर्ष पहले भी ये दो और दो चार ही थे और आगे भी ये दो और दो चार ही रहेंगे। इस प्रकार तीनों काल में दो और दो चार ही रहेंगे। क्योंकि, वह सत्य है। दो और दो को तीन या दो और दो को पाँच कहें तो वह झूठ गिना जायगा। इसी प्रकार सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित सिद्धान्त त्रिकालाबाधित है और सत्य है। *** ** For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन-धर्म अनादिकालीन है यह बात जगत-मान्य है कि, जैन-धर्म बौद्ध-धर्म की शाखा नहीं है । तथागत बुद्ध के चाचा वप्प भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के अनुयायी थे। स्वयं गौतमबुद्ध बचपन में अपने चाचा के साथ अनेक बार भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यों के पास जाया करते थे; इसलिए उनके सिद्धांतों पर बहुत-कुछ छाप जैन-धर्म के तेवीसर्वे तीर्थकर पार्श्वनाथ की है। कुछ लोग कहते हैं कि, भगवान् महावीर ने जैन-धर्म प्रारंभ किया है। यह बात सर्वथा मिथ्या है । इतिहास तथा जैन-सिद्धांत द्वारा यह बात सिद्ध है कि, भगवान् महावीर ने इसे शुरू नहीं किया, उनके पहले भी तेईस तीर्थंकर हो गये थे। उस समय भी जैनधर्म था और इस काल के इन चौबीस तीर्थंकरों के पहले भी जैन-धर्म प्रचलित था। जैन-सिद्धांतानुसार जो-जो तीर्थंकर होते हैं, वे वस्तुतः नवीन कुछ भी प्रारम्भ नहीं करते। परन्तु वे संपूर्ण ज्ञानी होकर धर्म को प्रकाश में लाते है, उसका प्रचार करते हैं, धर्म की प्ररूपणा करते हैं; परन्तु वह उनके समय से शुरू हुआ यह बात बिलकुल मिथ्या है। वेद, पुराण, स्मृति, त्रिकुरल आदि अनेक इतर धर्म-शास्त्रों में भी श्री ऋषभदेव भगवान से लेकर चौबीसों तीर्थंकरों की स्तुति है। इसी से समझ में आ सकता है कि जैन-धर्म वेद से भी प्राचीन है। इसी प्रकार जैन-धर्म हिन्दू-धर्म की शाखा भी नहीं है, इस बात की बोषणा तो वर्तमानकालीन अनेक पौर्वात्य और पाश्चात्य विद्वानों ने की है। कुछ विद्वानों के अभिप्रायों को हम यहाँ दे रहे हैं। बौद्ध-ग्रन्थ 'धम्मपद' मैं ऋषभदेव भगवान् से लेकर महावीर स्वामी तक की स्तुति आती है । इससे स्पष्ट है कि, जैन-धर्म बौद्ध-धर्म से प्राचीनतर है। ****** For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जगत की दृष्टि में... जैन-धर्म के विशाल संस्कृत-साहित्य को यदि पृथक् कर दिया जाये तो संस्कृत-कविता की क्या दशा होगी ? इस सम्बन्ध में जैसे-जैसे मेरे ज्ञान की वृद्धि होती है, वैसे-वैसे मेरे आनंदयुक्त आश्चर्य में वृद्धि होती है। डॉ. हर्टल (जर्मनी) जैन-दर्शन स्वतंत्र दर्शन है। मैं अपना यह निश्चय प्रकट करता हूँ कि, जैन-धर्म मूल धर्म है । वह सब दर्शनों से बिलकुल भिन्न और स्वतंत्र है। प्राचीन भारतवर्ष के तत्त्वज्ञान और धार्मिक जीवन के अभ्यास के लिए वह बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है। डॉ. हर्मन याकोबी ( जर्मनी) जैन-दर्शन बहुत ही ऊँची कोटि का है । इसके मुख्य तत्त्व विज्ञानशास्त्र के आधार पर रचे गये हैं । जैसे-जैसे पदार्थविज्ञान आगे बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे जैन धर्म के सिद्धांतों की भी सिद्धि होती जाती है। डॉ. एल. पी. टेसीटोरी इटालियन विद्वान जैन-धर्म यथार्थ में न तो हिंदूधर्म है और न वैदिकधर्म है।...वह भारतीय जीवन, संस्कृति तथा तत्त्वज्ञान का मुख्य साधन है । जवाहरलाल नेहरू For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५३ ) जैन-धर्म का उद्भव और इतिहास स्मृति-शास्त्र तथा उनकी टीकाओं से बहुत प्राचीन है ! जैन धर्म हिंदू-धर्म से बिलकुल भिन्न और स्वतंत्र है । श्री कुमारस्वामी शास्त्री मद्रास हाइकोर्ट के प्रधान न्यायमूर्ति विश्व के अप्रतिम विद्वान् जार्ज बर्नार्डशा ने एक बार देवदास गाधी से कहा-"जैन-धर्म के सिद्धांत मुझे बहुत प्रिय हैं। मेरी यह इच्छा है कि, मृत्यु के बाद मैं जैन-परिवार में जन्म ग्रहण करूँ।" जैन-धर्म के सिद्धांतों के प्रभाव के कारण वे निरामिष भोजन करते थे। जार्ज बर्नार्ड शा जैन धर्म ने संसार को अहिंसा की शिक्षा दी है। किसी दूसरे धर्म ने अहिंसा की मर्यादा यहाँ तक नहीं पहुँचायी। जैन-धर्म अपने अहिंसासिद्धांत के कारण विश्वधर्म होने के लिए पूर्णतया उपयुक्त है। डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जैन धर्म में उच्च आचार-विचार और उच्च तपश्चर्या है । जैनधर्म के प्रारंभ को जानना असंभव है। फरलांग मेजर जनरल ऋग्वेद में भगवान् ऋषभदेव के सद्भावज्ञापक मन्त्र में बताया गया है। ऋषभं मासमानानां सपत्नानां विषासहिहन्तारं शत्रणां दधि विराज गोपितं गवाम् १०१-२१-२६ For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन-सिद्धांत असंदिग्धरूप से प्राचीन काल से है; क्योंकि 'अर्हन् इदं दयसे विश्वमयम्' इत्यादि वेद-वचनों से भी इसकी प्राचीनता मालूम पड़ती है। प्रो० विरूपाक्ष, एम. ए., वेदतीर्थ वैदिक विद्वान् कन्नड़-भाषा के आद्यकवि जैन ही थे। प्राचीन और उत्कृष्ट साहित्यरचना का श्रेय जैनों को है। रा. ब. नरसिंहाचार्य आधुनिक ऐतिहासिक शोध से यह प्रकट हुआ है कि, यथार्थ में ब्राह्मण-धर्म के सद्भाव अथवा उसके हिंदूधर्मरूप में परिवर्तन होने के बहुत पहले जैन-धर्म इस देश में विद्यमान था। न्यायमूर्ति रांगळेकर बंबई-हाइकोर्ट मोहेंजोदारो, प्राचीन शिलालेख, गुफाएँ तथा अनेक प्राचीन अवशेषों के प्राप्त होने से भी जैन-धर्म की प्राचीनता का ख्याल आता है। जैन-मत तब प्रचलित हुआ जब कि, सृष्टि की शुरुआत हुई । मैं तो यह मानता हूँ कि, वेदांत-दर्शन से भी जैन-धर्म बहुत प्राचीन है। स्वामी राममिश्रजी शास्त्री प्रो० संस्कृत कालेज, बनारस, मेरे इस कथन में थोड़ी भी अतिशयोक्ति नहीं है कि, वेद-रचना के काल के पहले भी जैन-धर्म अवश्य था । डा. एस्. राधाकृष्णन राष्ट्रपति For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन-साधु वस्तुतः प्रशंसनीय जीवन व्यतीत करते हैं । जैन-साधु पूर्ण रूप से व्रत, नियम और इंद्रिय-संयम का पालन कर विश्व में आत्मसंयम का एक शक्तिशाली तथा उत्तम आदर्श उपस्थित करते हैं। एक गृहस्थ का जीवन भी जिसने कि जैनत्व (जैन आचार-विचार का पालन करनेवाला) अंगीकार किया है, वह इतना अधिक निर्दोष होता है कि, भारतवर्ष को उस पर अभिमान होना चाहिए । । डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषण एम्. ए., पी. एच. डी., कलकत्ता. ग्रंथों तथा सामाजिक व्याख्यानों से यह बात प्रकट होती है कि, जैनधर्म अनादिकालीन है। यह विषय निर्विवाद और मतभेद विहीन है तथा इस विषय में इतिहास के प्रबल प्रमाण भी हैं। -लोकमान्य बालगंगाधर टिळक ऐतिहासिक संसार में जैन-साहित्य जगत के लिए सबसे अधिक उपयोगी है । वह इतिहास लेखकों तथा पुरातत्व विशारदों के लिए अनुसंधान की विपुल सामग्री अर्पित करता है। डॉ० सतीशचन्द्र विद्याभूषण एम. ए., पी. एच. डी., कलकत्ता विश्वशांति-संस्थापक-सभा के प्रतिनिधियों का हार्दिक स्वागत करने का अधिकार केवल जैनों को ही है; क्योंकि अहिंसा ही विश्वशांति का साम्राज्य पैदा कर सकती है और जगत को इस अनोखी अहिंसा की भेंट जैनधर्म के निर्यामक तीर्थकर-परमात्माओं ने की है । इसलिए, विश्वशांति की घोषणा प्रभुश्री पार्श्वनाथ और महावीर के अनुयायियों के सिवा और दूसरा कौन कर सकता है। -डॉक्टर राधाविनोद पाल For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का नाश करते ( ५६ ) जैन लोग प्रचुर परिमाण में विस्तृत लोकोपयोगी साहित्य के स्रष्टा हैं। -प्रो. जोहांस हर्टल पश्चिम के देश हिंसा में इतने अधिक मशगूल हैं कि, मनुष्य-मनुष्य का नाश करते समय भी थोड़ी-सी हिचकिचाहट का अनुभव नहीं करते। इसलिए, जैन-धर्भ एक ऐसा अद्वितीय धर्म है कि, जो प्राणी मात्र की रक्षा करने के लिए क्रियात्मक प्रेरणा देता है। जैन लोग खाने-पीने या चलने में भी दूसरे प्राणियों की रक्षा का ख्याल रखते हैं । मैंने ऐसा दया-भाव किसी दूसरे धर्म में नहीं देखा । अमेरिकन महिला ओर्डीकाजेरी (४-२-५३ के दिल्ली के भाषण से) ** ** For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुनर्जन्म के कुछ प्रमाण सेवन्तीलाल माणेकलाल-कथित पूर्वजन्म का विवरण लगभग तीन वर्ष की उम्र में ही कोई-कोई नाम सुनकर मुझे ऐसा लगता कि, यह नाम मैंने पहले कभी सुना है और किन्हीं वस्तुओं को देखने पर लगता कि, इसे पहले कभी देखा है। इस प्रकार विचार करतेकरते मुझे ऐसा लगने लगा कि, किसी भव में मुझे पत्नी थी और बच्चे थे। ये विचार मुझे उठ रहे थे कि, एक दिन मेरे पिता ने मुझे ककड़ी का एक टुकड़ा दिया। मैंने उनसे कहा-"मैं तो आपका इकलौता पुत्र हूँ। आप मुझे इतना छोटा-सा टुकड़ा क्यों दे रहे हैं ? पूर्व भव में मुझे ६-६ बच्चे थे; पर मैं तो उन्हें पूरी-पूरी ककड़ी खाने को देता था ।" मेरी बात सुनकर घर में सबको आश्चर्य होने लगा कि, यह नन्हा-सा बच्चा भला क्या कह रहा है ? पर, मेरी बात पर किसी ने अधिक ध्यान नहीं दिया । बाद में मैं कहने लगा-"मैं श्रावक था और मेरा नाम केवलचन्द था । पाटन में मेरा घर था। मेरी तीन पत्नियाँ थीं और मुझे ६ बच्चे थे।" मैं बच्चों का नाम बताता । मुझे ६ लड़के और एक लड़की थी। पूना में मेरी दो दूकानें थीं-एक कपड़े की और दूसरी गोल की। ५६ वर्ष का मेरा आयुष्य था । मेरी तीन पत्नियों में दो पत्नियाँ बहुत अच्छी न थीं; पर एक बड़े शिष्ट स्वभाव की थी। मरने से पूर्व मुझे लकवा लग गया था; अतः मैं लकड़ी लेकर चलता था । ___ मुझे एक बहन थी जो उम्न में मुझसे तीन वर्ष बड़ी थी। वह मेरे घर में काम-काज सँभालनेवाली थी। उसके पति का नाम वीरचंद For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ठाकरडो था। मेरी वर्तमान माँ उस समय मेरी बहन थी। पाटन में तंबोलीवाड़ा में मेरा घर था। उसमें इमली का पेड़ था। मैंने आत्माराम जी महाराज, कमलसूरि जी महाराज तथा उमेदविजय जी महाराज का दर्शन किया था। उसके बाद के दूसरे भव में में ब्राह्मण हुआ। मेरा आयुष्य २५ वर्ष मात्र रहा । मैंने विवाह नहीं किया। ब्राह्मण वाले भव के सम्बन्ध में मैं केवल इतनी ही बात जानता हूँ । .. मैं इन बातों को कहता तो घर के हर व्यक्ति कहते कि यह क्या है ? पर, वे इस पर कुछ विशेष ध्यान न देते । एक समय मेरी माता पाटन गयी। उस समय मेरी उम्र केवल तीन ही वर्ष की थी । अतः मैं भी माँ के साथ गया। स्टेशन पर उतरा । इस भव में पाटन जाने का यह मेरा पहला ही अवसर था। मैंने माँ से कहा"आप लोग मेरा कहना सच नहीं मानती थीं। पर, आज मैं अपना घर आपको बताऊँगा।" मा ने कहा-"बताओ! मैं भी तुम्हारा घर देखू !” मैं माँ को तंबोलीबाड़े में अपने घर ले गया। घर अच्छी दशा में नहीं था। उसे दिखा कर मैंने कहा--"यह मेरा मकान है।" दो चार पड़ोसियों को बताया। महल्ले के सभी देवमन्दिरों (घर-मन्दिर ) में ले गया। महाराज साहब का फोटो दिखा कर बताया कि, 'यह आत्माराम जी महाराज हैं, 'यह कमलसूरि महाराज हैं', और 'यह उमेदविजयः जी महाराज हैं।' इस पूरी हकीकत को जानकर पाटन में सब लोग नतमस्तक हो गये । हजारों लोग मुझे देखने आते । लगभग २-४ मास ऐसा ही चलता रहा । गायकवाड़-सरकार ने जांच करने के लिए कुछ अफसर पाटन भेजा । मैं भी पाटन बुलाया गया। उन लोगों ने मुझसे कहा-"अन्य कोई तथ्य बताओ।" उस समय पाटन में सुखड़ीवट में डाह्याचंद आलमचंद की पेढ़ी चलती थी। For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५६ ) वहाँ मेरा ( पाटन के भव के नाम केवलचंद्र रामचन्द्र के नाम का) खाता चलता था। मैं उस दूकान पर जाँच करनेवाले अफसरों को ले गया। उनके सामने ३०-४० वर्ष पुराने कागज निकलवा कर अपना खाता निकलवाया। पाटन के भव का मेरे पुत्र का पुत्र मुझे देखने के लिए आया । उसे देखते ही मैं बोला-"तुम तो मेरे बच्चे हो । तुम्हारा नाम मणिलाल है।" उसने भी मेरी बात स्वीकार कर ली। सेवन्तीलाल (चाणसमा) [२] छतरपुर के शिक्षा विभाग के निरीक्षक श्री मनोहरलाल मिश्र की पुत्री स्वर्णलता अपने पूर्व जन्म की बातें बताती है। मिश्रजी एक दिन अपनी पुत्री के साथ जबलपुर गये । वहाँ वह किसी ऐसी जगह की तलाश में थे, जहाँ वह पानी पी सकें। इसी बीच स्वर्णलता ने चाय की एक छोटी-सी दूकान दिखा कर कहा-"चलिए पिता जी, यह अपनी ही दूकान है । इसमें चाय-पानी कर लीलिए ।" यह सुनकर श्री मनोहरलाल मिश्र को हुआ कि, इस लड़की को भ्रम हो गया है। यहाँ तो किसी से जान-पहचान भी नहीं है, फिर यहाँ अपना होटल कहाँ से आ गया ?" पर, पिता की चिन्ता किये बिना स्वर्णलता उस छोटे-से होटल में घुस गयी । और, अपने पूर्वजन्म के छोटे भाई हरिप्रसाद को सम्बोधित करके बोली-"हरी ! मुझे पीने के लिए पानी तो देना । बड़ी प्यास लगी है।" अज्ञात लड़की के मुख से अपना नाम सुन कर हरिप्रसाद पाठक चकित रह गया । उसे आश्चर्य में पड़ा देखकर लड़की बोली- "हरी तू मुझे नहीं पहचानता । मैं तुम्हारी बड़ी बहन किशोरी हूँ।" उसकी बात सुन कर हरी अपने पूरे कुटुम्ब को बुला लाया । सन् १९३९ तक उस For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६० ) परिवार में जितने भी व्यक्ति थे, सब के नाम उस लड़की ने बताये । छोटी उम्र में उसके भाई जिस नाम से बुलाये जाते, उन नामों को स्वर्णलता ने बताया । उसके बाद उस लड़की के ससुराल पक्ष के लोग बुलाये गये । उसने अपने तीन पुत्र और दो पुत्रियों को पहचान लिया । उसमें एक बच्चे ने अपना नाम गलत बताया तो स्वर्णलता बोली "माता के सामने झूठ बोलते लज्जा नहीं आती ?" उसके बाद उसके पूर्वजन्म के पति चिन्तामणि पाण्डेय आये। लड़की से पूछा गया कि यह कौन है ? पूछे जाने पर वह १० वर्ष की लड़की शरमा गयी। और, बोली-"यह वही हैं, जिनसे मेरा विवाह हुआ था। पालकी में बैठकर मैं ससुराल गयी थी। तब यह घोड़े पर थे। रास्ते में इनका घोड़ा भड़क गया था और चार आदमियों को दबाने के बाद घोड़े ने इन्हें पटक दिया था। ये बहुत घायल हो गये थे और महीनों चारपाई पर पड़े रहे।" यह सब सुनकर उसके पिता मनोहरलाल मिश्र के साथ उपस्थित सभी चकित रह गये। उस लड़की की परीक्षा लेने के लिए सागर-विश्वविद्यालय के उप कुलपति श्री द्वारकाप्रसाद मिश्र, मनोविज्ञान के पंडित श्री मोहनलाल पारा और गंगापुर के विख्यात मानसशास्त्री श्री एच्. एन्. बनर्जी आये । उसकी परीक्षा के बाद उन लोगों ने मत व्यक्त किया-"इस लड़की को अपने पूर्वजन्म की बातें याद हैं, इसमें शङ्का नहीं है।" इन लोगों के समक्ष उस लड़की ने कहा-“१९३९ में मेरी मृत्यु हुई । इस जन्म से पहले मैं सिलहट (आसाम) में पैदा हुई थी। वहाँ मेरे घर के लोग गाने का काम करते थे।" उस लड़की ने असमी भाषा के दो गाने सस्वर गाकर सुनाये। उसने कुछ लोगों के नाम भी For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बताये । वहाँ ९ वर्ष की उम्र में मेरी मृत्यु हुई । उसके बाद इस घर में मेरा जन्म हुआ। द्वितीय जन्म की बात की सत्यता की जाँच के लिए ये लोग इस लड़को को आसाम ले जाने की तैयारी कर रहे हैं। रक्षाबंधन के दिन इस १० वर्ष की लड़की ने अपने पूर्व जन्म के सभी वयोवृद्ध भाइयों को राखी बाँधी । स्वर्णलता पूर्वजन्म के सुख-दुःख तथा खेल-कूद की भी बातें करती है । उसके पूर्व जन्म के वृद्ध भाई और युवक भतीजे उसकी बातें रस से सुनते हैं। विशेषज्ञों के कथनानुसार आत्मा अमर है और मनुष्य विभिन्न योनियों में जन्म लेते हैं। यह मान्यता इस लड़की के दो जन्मों से सिद्ध हो जाती है। अभी भी यह लड़की जबलपुर में है। इस जन्म की उसकी माता और छोटे भाई भी जबलपुर आ गये हैं। श्री मनोहरलाल मिश्र जहाँ उतरते थे, वहाँ इस लड़की को देखने के लिए प्रातः से सायं तक सैकड़ों लोगों की भीड़ लगी रहती है। -"जनशक्ति" २३-८-५६ रविवार [३] बरेली, यहाँ पुनर्जन्म में विश्वास न करनेवाले एक मुस्लिम परिवार में पुनर्जन्म की कहानी प्रत्यक्ष हो गयी । कहते हैं कि, एक मुस्लिम अध्यापक श्री हशमतउल्ला अन्सारी जब इकराम अली-नामक एक पुराने जमींदार के यहाँ पढ़ाने गये, तब उनके पंचवर्षीय पुत्र करीमउल्ला ने जमींदार के घर For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६२ ) गया घुस कर उसकी विधवा पुत्रवधू फातिमा का हाथ पकड़ लिया और कहा कि "तुम तो मेरी बीबी हो, फातिमा !" फातिमा बच्चे के मुख से अपना नाम सुन कर बेहोश हो गयी । कहते हैं कि लड़के की सारी पूर्व स्मृतियाँ जाग उठी और वह बिना किसी के बताये ही अपरिचित मकान में इस तरह व्यवहार करते हुए कि जैसे उसीका जाना-पहचाना घर हो, पूर्वजन्म की बीबी के भीतरी कक्ष में जाकर पूर्व परिचित अपनी कुर्सी पर : बैठ और फातिमा के श्वसुर को अब्बा- अब्बा कह कर पुकारने लगा । फातिमा पान लगा रही थी, लड़के ने जाते ही कहा, "फातिमा, हम भी पान खायेंगे ।” पता लगा कि फातिमा के पति फारूख की मृत्यु पाँच वर्ष पूर्व हुई थी। जब सभी लोग एकत्र हो गये, तब लड़के ने पूर्वजन्म की कहानी सुनाते हुए ऐसी सारी बातें सुनायीं, जो केवल फातिमा और फारूख ही जानते थे । उसने कहा कि मैंने अपने भाई को, जो पाकिस्तान में हैं, ५ हजार रुपये भेजे थे और ३ हजार बैंक में जमा है । उपर्युक्त व्यक्ति लाहौर में व्यापार करता है और फारूख का इरादा भी वहीं रहने का था, इसका रहस्योद्घाटन लड़के ने किया। उसने पहले के भाई उमर आदिल का नाम भी बताया । यह भी कहा कि मेरे श्वसुर के चोरी गयी थी, जो वास्तव में सच्ची घटना है। लड़के की बातें सुनकर उसके पूर्वजन्म के पिता ने करता, तथापि जो आँखों के यहाँ से एक बन्दूक कहा कि सामने यद्यपि मैं पुनर्जन्म में विश्वास नहीं देख रहा हूँ, उससे इन्कार भी नहीं कर सकता । - 'नवभारत टाइम्स' ( हिन्दी ) ता० २८-६-५६ रविवार [ ४ ] हारीज । ठक्कर शिवराम की ८ वर्षीया पुत्री हीरा अपने पूर्व जन्म की कथा बताती है । उसके पिता उसे लेकर हारीज आये हैं । For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६३ ) बहुत-से लोग उसे देखने आते हैं और कितने ही श्रद्धालु लोग तो उसके समक्ष पगड़ी और टोपी उतार कर हाथ जोड़ कर उसका दर्शन करते हैं। ___ यहाँ वह अपने पूर्व जन्म की बहन से मिलने आयी है। उसने अपनी बहन से बचपन की कितनी ही बातें कही। -जनसत्ता १२ जनवरी १९६१ एक बार मुझे रत्नागिरि जिले के एक छोटे-से गाँव में जाने का अवसर मिला । वहाँ जहाँ मैं रुका था, उसके पड़ोस में ही सदाशिव-नामक एक ब्राह्मण रहता था । सदाशिव को एक आठ वर्षीया पुत्री थी। उसका नाम रम्भा था। एक दिन उस घर में शोर सुनकर जो मैं वहाँ गया, तो पता चला कि, रम्भा मद्रास जाने के लिए जिद कर रही है और कई दिनों से उसने खाना खाना भी बंद कर रखा है। वह कह रही थी कि पूर्व भव में वेंकटराव नामक उसे एक पुत्र था और वह उससे मिलना चाहती है। मेरे प्रस्ताव पर सदाशिव मद्रास जाने को राजी हो गया और दूसरे दिन हम तीनों मद्रास चल पड़े। ___ मद्रास पहुँच कर हम लोगों ने एक ताँगा किया और रम्भा के बताये रास्ते से चल कर एक बँगले पर पहुंचे। उस समय वेंकटराव समाचार पत्र पढ़ रहे थे । रम्भा ने वेंकटराव से इस रूप में व्यवहार किया और घर की अनेक ऐसी बातें बतायीं कि, वेंकटराव को भी आश्चर्य हुआ और उन्हें भी उसे अपनी माता होना स्वीकार करना पड़ा। -'किस्मत' सितम्बर १९५७ For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६४ ) [ ६ ] उत्तरी- प्रदेश के एक ग्राम के बनिया की मुन्नी - नामक दो वर्ष की लड़की अपने पूर्व भवों की कथा बताती है । वह कहती है कि, वह पूर्व भव में उसी ग्राम के केशवदेव नामक ब्राह्मण की पुत्री थी और ११ वर्ष की उम्र में खाना बनाते समय साड़ी में आग लग जाने से मृत्यु को प्राप्त हुई थी । केशवदेव ने बात स्वीकार की । उससे पूर्व भव में वह अपने को मथुरा के एक चौबे परिवार की कन्या बताती है और उस भव के अपने पुत्र का नाम आदि भी सही-सही बताती है । -किस्मत दीपोत्सवी अंक : संवत् २०१६. [ ७ ] 'ब्राह्मणवाणी' नामक एक मासिक पत्र के सम्पादक गोस्वामी श्री ब्रह्मदत्त ने शिकारपुर के एक पाँच वर्ष के बच्चे की कथा की है जो अपने पूर्व भव की कथा बताता है । उस बच्चे की कथा प्रकाशित 'सन्मार्ग' में भी प्रकाशित हुई थी । ***** पुष्टि की काशी से - किस्मत दीपावली अंक : १६६० ई० For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में उप ans Serving JinShasan 016491 gyanmandir@kobatirth.org For Private And Personal Use Only