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उसी प्रकार सबको दुःख होता है । जिस प्रकार हम सुख की कामना करते हैं, उसी प्रकार सब प्राणी सुख की आकांक्षा रखते हैं। इसलिए, सबकी एक समान रक्षा करनी चाहिए। इसमें ऐसा भेद नहीं करना चाहिए कि, जो हमें बाधा पहुँचाये उसे मारने में पाप नहीं समझा जाये-इस प्रकार का वचन भी हिंसक-वचन है। यह सर्वज्ञ परमात्मा का शासन है। उसकी विशाल दृष्टि यह है कि, यदि कोई भी जीव आत्मा हमारा बुरा करे, हमें दुःख दे; तब भी उसकी रक्षा करो। फिर चाहे वह पशु हो या मनुष्य हो ।
जैन-धर्म की कितनी विशालता ? कैसी उच्चता ? जिनेश्वर देवों की कैसी अप्रतिम लोक-कल्याण विषयक भावना-सूक्ष्माति-सूक्ष्म प्राणियों के लिए भी रक्षा का उपदेश-बुरा करने तथा बुरा सोचनेवाले की भी रक्षा. तथा भला हो यही एक भावना उसमें समायी हुई है। प्राणी चाहे जिस देश का हो, चाहे जिस योनि का हो, चाहे जहाँ रहता हो, मुर्खातिमूर्ख हो, पर सबकी अपराधियों में भी निकृष्ट अपराधी प्राणी की भी रक्षा करो, केवल यही एक उपदेश सर्वज्ञ परमात्मा जिनेश्वर देव का रहा है और है। ___हमारे पाँव में एक काँटा चुभता है, तो हम हाय-तोबा मचा देते हैं । चिल्लाते हैं तो फिर दूसरे प्राणियों पर अत्याचार कैसे किया जाये ? क्या उन्हें दुःख नहीं होता ? जिस प्रकार हमें दुःख होता है, उसी तरह सचको दुःख होता है । सबसे अधिक बहुमूल्यवान प्राण-जान है । करोड़ों रुपये खर्च करने पर भी गया हुआ जीवन नहीं मिल सकता । ___ मनुष्य दूसरे प्राणियों की अपेक्षा अधिक समझदार और समर्थ है । इसीलिए, उसका यह प्रथम कर्तव्य है कि, वह निर्बल की रक्षा करे । सिर्फ अपने भौतिक सुख के लिए दूसरे प्राणियों को सुख से वंचित करना मानव नहीं पशु-वृत्ति है। __जो प्राणी बेचारे गूंगे हैं, वाणी द्वारा अपने सुख-दुःख को प्रकट नहीं कर सकते, ऐसे निर्बल प्राणियों का अपने स्वार्थ या जिह्वा लोलुप्य के लिए संहार करना भयंकर अन्याय है। इसमें मानवता नहीं, स्पष्ट दानवता है ।
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