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( ३५ )
यदि इस रूप से वस्तु को देखा जाये तो जगत् की प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक सिद्ध होगी । एक विशेष उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जायेगी । एक ही व्यक्ति क्षेत्र की अपेक्षा से 'आर्य' है; वर्ण की अपेक्षा से वही 'वैश्य' कहलाता है; ग्राम की अपेक्षा से 'नागोरी' कहलाता है । पिता की अपेक्षा से वही 'पुत्र' है; पुत्र की अपेक्षा से वही 'पिता' है; पत्नी की अपेक्षा से वही 'पति' है और बहन की अपेक्षा से वही 'भाई' है । इन भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से उसी एक व्यक्ति में भिन्न-भिन्न धर्म सम्भव दिखता है ।
इसमें किसी एक अपेक्षा को ध्यान में रखकर उसका प्रतिपादन करना 'नय' कहलाता है 'नय' में सत्य का अंश होता अवश्य है; परन्तु यदि अन्य धर्मों का निषेध किया जाये तो वह कथन को असत्य कर देता है ।
पचहत्तर वर्ष का एक वृद्ध पुरुष है । उस वृद्ध पुरुष के पैंतालीस वर्ष का एक पुत्र है और उसके भी पन्द्रह वर्ष का एक पुत्र है ।
अब यदि उस पैंतालीस वर्ष के मनुष्य को केवल पिता हो कहा जाय तो वह वचन मिथ्या ठहरता है; क्योंकि वह उसके पचहत्तर वर्ष के वृद्ध पिता की अपेक्षा से पुत्र भी है । इसी प्रकार यदि उस पैंतालीस साल के मनुष्य को केवल पुत्र ही कहा जाये तो यह वचन भी मिथ्या होता है, क्योंकि वह अपने पन्द्रह वर्ष के पुत्र की अपेक्षा से पिता भी है । इस प्रकार वह एक ही व्यक्ति पिता भी है और पुत्र भी है ।
इसीलिए, वस्तु के पूर्ण स्वरूप को समझानेवाला स्याद्वाद है । वस्तु के केवल एक ही गुण या धर्म को देखकर यह वस्तु ऐसी ही है, ऐसा कहना भ्रमात्मक है; क्योंकि उसी समय ऐसे अनेक दूसरे गुणों का सद्भाव रहता है । स्याद्वाद को ठीक तरह से समझ लिया जाये, तो वस्तु का सच्चा स्वरूप जाना जा सकता है । आँखों से दिखाई देनेवाला यह जगत क्या है ? उसकी वस्तुएँ कैसी हैं ? उसका स्वभाव क्या है ? उसके गुणपर्याय कितने
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