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भूमिका एक साधारण व्यक्ति की बात तो जाने दीजिये; पढ़े-लिखे और भारतीय साहित्य से परिचय का दावा करनेवाले व्यक्ति भी जैन-साहित्य के सम्बन्ध में जो धारणा रखते हैं, उसकी अपेक्षा जैन-साहित्य कहीं अधिक विशाल है। साहित्य, व्याकरण, दर्शन, न्याय, गणित, ज्योतिष, कहिए ज्ञान का कोई भी अंग जैन-आचार्यों की लेखनी से अछूता नहीं रहा । जहाँ तक ज्ञान का सम्बन्ध है, अपने आचार-विचार में सुदृढ़ रहने पर भी, जैन-आचार्यों ने ज्ञानोपासना में कभी अपनी दृष्टि संकुचित नहीं रखी-जैनेतर ग्रन्थों पर भी उन्होंने अपनी लेखनी उठायी है, उनकी टीकाएँ लिखी हैं और जैनेतर शास्त्रों को भी अपने भंडारों में शताब्दियों तक रक्षा की है।
इन बाद के रचे गये जैन-ग्रन्थों के अतिरिक्त जैन-सिद्धान्तों के मूल प्रमाण-रूप आगम भी ४५ हैं-११ अंग, १२ उपांग, ६ छेद, ४ मूल, २ चूलिका तथा १० प्रकीर्णक । इन पर नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य तथा टीकाएँ हैं। इस प्रकार सब मिला कर पूरा जैन-साहित्य इतना विशाल है कि, उसके सर्वांग ज्ञान को कौन कहे, एकांगी ज्ञान भी पूर्ण रूप से प्राप्त करना एक बड़े परिश्रम और अध्यवसाय का कार्य है।
जैन-धर्म की यह विशेषता है कि, वह इसी भारतवर्ष के आर्यक्षेत्र में उद्भूत हुआ, यहीं उसके अपने अच्छे-बुरे दिन देखे और समय-समय पर जब भी दीप धीमा हुआ, यहीं उसके २४ तीर्थङ्करों ने उसे पुनः प्रदीप्त किया !
अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी के काल में भारत में श्रमण-सम्प्रदाय से सम्बन्धित ५ धर्म थे, उनमें से एक बौद्धों को छोड़कर शेष सभी विलुप्त हो गये और वैदिकों ने उनको आत्मसात कर लिया। रही बौद्ध-धर्म की बात-उसे भी भारत-भूमि छोड़ना पड़ा और विदेशों में जाकर देश-काल के अनुरूप अपने में परिवर्तन करना पड़ा। पर, जैन-धर्म ही एक ऐसा
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