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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन धर्मानुसार काल के दो विभाग होते हैं-(१) उत्सर्पिणी और (२) अवसर्पिणी । उत्सपिणी और अवसर्पिणी काल में २४-२४ तीर्थंकर होते हैं। तीर्थंकर 'जिन', 'अरिहंत' 'जिनेश्वर' इत्यादि नामों से पहचाने जाते हैं। भूतकाल में इस प्रकार की अनंत चौबीसियाँ हो गई हैं और भविष्य में भी इस प्रकार की अनंत चौबीसियाँ होंगी । तीर्थंकर देव की आत्माएँ जन्म-काल से ही विशिष्ट ज्ञानी और महासौभाग्यशाली होती हैं। इन तीर्थंकर देवों की आत्माएँ राज्यपाट का त्याग कर वैभव-विलास को छोड़, स्वयं दीक्षा ( संन्यास ) अंगीकार करती हैं। दीक्षा लेने के बाद वर्षों तक पूर्वसंचित कठिन कमों का क्षय करने के लिए वे घोर तपश्चर्या करते हैं। इस काल में वे कठिन अभिग्रह और विविध घोर प्रतिज्ञाएँ धारण करते हैं। अपने छद्मस्थ-काल में वे भयंकर उपसगों को अपूर्व क्षमापूर्वक सहन करते हैं । सदैव आत्म-ध्यान में लीन रहते हैं । ऐसी उत्कट तपश्चर्या द्वारा जन्म-जन्मांतर के पापों का नाश कर डालते हैं। चिकने कर्मों को भस्मीभूत कर, शत्रु-मित्र पर समभाव रखते हुए, वीतराग दशा को प्राप्तकर केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त करते हैं । यह केवलज्ञान संपूर्ण ज्ञान है। उन ज्ञान और दर्शन द्वारा तीनों लोक केस्वर्ग, मृत्यु और पाताल लोक के तीनों काल के-भूत, भविष्य और वर्तमान काल के समस्त भावों को अखिल विश्व के पदार्थों को तथा क्षण-क्षण में परिवर्तित दुनिया को जानते और देखते हैं । इन संपूर्ण ज्ञानी परमात्मा के ज्ञान से कोई वस्तु अज्ञात नहीं होती । कौन कहाँ से आया ? कहाँ जायेगा ? अनंतकाल के पहले वह किन-किन अवस्थाओं का उपभोग कर रहा था ? कब उसका उद्धार होगा ? इत्यादि वस्तुएँ वे हस्तामलकवत् देखते और जानते हैं । परमात्मा विदेहमुक्त और जीवन्मुक्त इस प्रकार दो तरह के होते हैं । जिसने ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय इन आत्मगुण For Private And Personal Use Only
SR No.020070
Book TitleArhat Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtivijay Gani, Gyanchandra
PublisherAatmkamal Labdhisuri Jain Gyanmandir
Publication Year
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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