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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir षड्-द्रव्य (१) धर्मास्तिकाय, (२ ) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) पुद्गलास्तिकाय, (५) जीवास्तिकाय और (६) अद्धा समय अर्थात् काल-ये छः द्रव्य कहलाते हैं। १. धर्मास्तिकाय-गमन करनेवाले प्राणियों और गति करनेवाली जड़-वस्तुओं को उनकी गति में सहायता पहुँचानेवाला पदार्थ 'धर्म' कहलाता है । अस्ति अर्थात् प्रदेश और काय अर्थात् समूह । ऐसे पदार्थों के प्रदेशों के समूह को धर्मास्तिकाय कहते हैं। मछली में गति करने का सामर्थ्य है और उसकी जाने की इच्छा भी है; परन्तु वह निमित्त-कारग रूप पानी के बिना गति नहीं कर सकती। पानी के आलम्बन की तरह गति करने में सहायक होनेवाला द्रव्य ही 'धर्मास्तिकाय' है। २. अधर्मास्तिकाय-'अधर्मास्तिकाय' प्राणी को ठहराने में सहायक होता है । यदि किसी स्थान पर सदाव्रत की अच्छी व्यवस्था हो, तो भिक्षुकों की इच्छा वहाँ ठहरने की होती है । ये सदाव्रत भिक्षुक लोगों के हाथ पकड़कर उन्हें वहाँ नहीं ले जाते; परन्तु उस निमित्त को पाकर भिक्षुक वहाँ निवास करते हैं । चलते-चलते यात्री थक गया हो, तो उस समय वृक्ष की छाया की तरह 'अधर्मास्तिकाय' भी ठहरने में सहायक होती है। . ३. आकाशास्तिकाय-इसका गुण अवकाश अर्थात् जगह देने का है । यद्यपि आकाश आँखों या दूसरी इन्द्रियों द्वारा देखा नहीं जा सकता, फिर भी अवगाहगुण द्वारा वह जाना जाता है। लोक-सम्बन्धी आकाश को 'लोकाकाश' और अलोक-सम्बन्धी आकाश को 'अलोकाकाश' कहते हैं। धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय के सहयोग से ही लोक में जीव और For Private And Personal Use Only
SR No.020070
Book TitleArhat Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtivijay Gani, Gyanchandra
PublisherAatmkamal Labdhisuri Jain Gyanmandir
Publication Year
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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