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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २० ) का भय होता है और न किसी प्रकार की लेश मात्र भी उपाधि होती है । सिद्धशिला-स्थित समस्त आत्माएँ सदैव के लिए अनंत आनंद-सागर में निमग्न रहती हैं। परमात्मा शब्द ही इस बात का सूचक है कि, जो आत्मा शुद्ध और निर्मल बनती है, वह परमात्मा कहलाती है। इसीलिए, एक ही परमात्मा है, यह बात भी भ्रमपूर्ण हैं । यदि हमारी आत्मा का परमात्मा-पूर्ण और पूर्ण ज्ञानी होना--असम्भव होता तो साधुओं के लिए घर छोड़कर उत्कट तपश्चर्या करने की आवश्यकता नहीं रहती । साधु-सन्त केवल मुक्ति के ध्येय से ही प्रत्येक उत्कृष्ट क्रिया तथा उत्कट तपश्चर्याएँ करते रहे हैं और करते हैं । किसी प्रयोजन के बिना कोई मूर्ख मनुष्य भी किसी काम में प्रवृत्त नहीं होता। इसलिए, बुद्धिशाली और तपस्वी सन्त पुरुष मोक्ष प्राप्ति के लिए जो धार्मिक अनुष्ठान करते हैं, वे यथार्थ हैं। __परमश्वासौ आत्माच परमात्मा–यहाँ 'परम' शब्द 'आत्मा' का विशेषण है । जो आत्माएँ त्यागी संत होती हैं अर्थात् जिनके आचारविचार उत्तम होते हैं, वे ही आत्माएँ अथवा परमात्मा महात्मा-रूप से पहचानी जाती हैं। और, जिनका आचरण निकृष्ट होता है, जो खराब काम करते हैं तथा जो निर्दयी और पापी हैं, उनकी गिनती अधम आत्माओं में की जाती है। परमात्मा-अर्थात् वीतराग, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और सर्वशक्तिमान, पूर्ण सुखी, अखंड आनन्द के भोक्ता, अनंतगुणी और सर्वोपरि पूर्ण शुद्ध आत्मा For Private And Personal Use Only
SR No.020070
Book TitleArhat Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtivijay Gani, Gyanchandra
PublisherAatmkamal Labdhisuri Jain Gyanmandir
Publication Year
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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