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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिस प्रकार अनादि काल से खान में रहा हुआ सोना मिट्टी से मिला हुआ होता है, उसी प्रकार आत्मा भी अनादि काल से कम द्वारा लिप्त है । जिस प्रकार सोना खान में से बाहर निकालने के बाद विभिन्न प्रयोगों द्वारा शुद्ध और निर्मल बनता है उसी प्रकार आत्मा भी तप, संयम और दया, दान आदि साधनों द्वारा कर्म से विमुक्त होकर पूर्ण शुद्ध होता है । जो आत्मा कर्म से विमुक्त (रहित) बनती है, वह आत्मा परमात्मा दशा को प्राप्त करती है। ___जीवात्माओं की संख्या अनंतानंत है। सबकी आत्मा भिन्न-भिन्न हैं। यदि सबकी आत्मा एक ही होती, तो एक के सुख से सब सुखी और एक के दुःख से सब दुःखी दीख पड़ते; परन्तु इससे विपरीत ही देखने में आता है । जो व्यक्ति शकर खाता है, उसे ही शक्कर मीठी लगती है अन्य को उसके स्वाद का भास नहीं होता। एक व्यक्ति की मृत्यु होने पर उसके साथ सब नहीं मर जाते । इससे स्पष्ट है कि, स्वभाव-रूप से सब आत्माएँ समान होने पर भी व्यक्तिगत रूप से सब भिन्न-भिन्न हैं। जो-जो आत्माएँ कर्म से विमुक्त बनती हैं, वे सभी परमात्मा बनती हैं। शुद्ध बनी हुई आत्मा को पुनः कर्मों का लेप नहीं होता तथा उसे फिर से अवतार या जन्म लेना नहीं पड़ता। 'बीज के जल जाने के बाद जिस प्रकार अंकुर पैदा नहीं होते, उसी प्रकार कर्म-रूपी बीज के सर्वथा भस्मीभूत हो जाने पर जन्म-मरण-रूपी अंकुर पैदा नहीं होता। तात्पर्य यह है कि, उसे पुनः जन्म या अवतार लेना नहीं पड़ता, वह आत्मा अपने मूल रूप को प्राप्त कर के अजर-अमर बन जाती है। ये परमात्मा बनी हुई आत्माएँ इस शरीर को छोड़कर एक समय-सूक्ष्मातिसूक्ष्म काल-मैं सात रज्जु उँचे उस सिद्धशिला पर पहुँच जाती हैं, जहाँ पर कि अनंत सिद्धात्माएँ निवास कर रही हैं। सिद्ध शिला पर पहुँची आत्माओं का न तो जन्म होता है और न मरण, न उन्हें कभी रोग होता है और न शोक; न किसी For Private And Personal Use Only
SR No.020070
Book TitleArhat Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtivijay Gani, Gyanchandra
PublisherAatmkamal Labdhisuri Jain Gyanmandir
Publication Year
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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