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रात्रि-भोजन
. जैन-शास्त्रों में रात्रि-भोजन विशेष रूप से निषिद्ध माना गया है। रात्रि भोजन करने से अनेक सूक्ष्य तथा बादर और छोटे तथा बड़े जीवों की हिंसा होती है । सूर्यास्त होते ही और संध्या के प्रारम्भ होते ही अंधकार फैलने लगता है । उस समय अगणित सूक्ष्म जीव उड़ने लगते हैं। उन्हें हम बिजली के प्रकाश में भी नहीं देख सकते। ये समस्त जीव जो हमें दृष्टिगोचर नहीं होते रात्रि-भोजन से नाश को प्राप्त होते हैं। रात्रि के समय भोजन करने से कभी-कभी विषाक्त जीव आ जाने से मरण भी हो जाता है। यदि व्यक्ति जूं खा जाये तो जलोदर-रोग हो जाता है। कोड़ी खा जाये तो बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, काँटा-सरीखा सूक्ष्म शूल आ जाये तो भयंकर कष्ट भोगना पड़ता है और कभी-कभी प्राण से भी हाथ धोना पड़ता है। ऐसी स्थिति में रात्रि-भोजन का त्याग शारीरिक दृष्टि से कितना आवश्यक है, यह बात सहज ही समझ में आ सकती है। जिस प्रकार किसी मजदूर को मजदूरी करने के बाद विश्राम की अपेक्षा होती है, उसी प्रकार पेट को भी विश्राम अपेक्षित है।
रात्रि भोजन करनेवाला व्यक्ति इस लोक में मृत्यु प्राप्त करने के पश्चात् परलोक में बिल्ली, गृद्ध, कौआ, शूकर, बिच्छी, गुबरैल आदि पशु की योनि में जन्म लेता है। रात्रि भोजन वस्तुतः नरक का द्वार है।
चत्वारि नरक द्वाराणि, प्रथमं रात्रि-भोजनं । परस्त्री गमनं चैव, संधानानन्तकायिके ॥
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