Book Title: Arhat Dharm Prakash
Author(s): Kirtivijay Gani, Gyanchandra
Publisher: Aatmkamal Labdhisuri Jain Gyanmandir

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Page 39
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २२ ) में समर्पित कर देते हैं, और यह भावना भाते रहते हैं कि, "हे प्रभु ! इन सब वस्तुओं के मोह मैं आत्मा जन्म-जन्मांतरों से पागल बनी हुई है, फिर भी किसी जन्म में उसे तृप्ति नहीं हुई। अब इन नुच्छ जड़ पदार्थों की मुर्छा, मोह, माया छोड़कर मैं आप-जैसा वीतराग कब बनूँगा ?" वीतराग का ध्यान करने से आत्मा वीतराग बनती है । क्योंकि, प्रत्येक आत्मा में वीतरागता का गुण कर्म से दबा पड़ा हुआ है। वास्तव में आत्मा का स्वरूप और परमात्मा का स्वरूप एक ही है; इसीलिए हम 'सोऽहं सोऽहं का जाप जपते हैं। "हे प्रभु ! तेरे स्वरूप और मेरे स्वरूप में लेशमात्र भी अन्तर नहीं है। मैं भी परमात्मा स्वरूप हूँ, परन्तु आप कर्म रहित होकर परमात्मपद को प्राप्त हुए जब कि मैं कर्मवश होकर इस संसार में परिभ्रमण कर रहा इस प्रकार की विविध भावनापूर्वक परमात्मा की भक्ति करने से आत्मा सरलता से कल्याण को साध सकती है। जिस प्रकार जिनेश्वर देव को मूर्ति आत्मा के उत्कर्ष के लिए उत्तम आलंबन है, उसी प्रकार धार्मिक पुस्तकें और त्यागी गुरुदेव आदि भी प्रशस्त अर्थात् श्रेष्ठ आलम्बन-रूप हैं । इसलिए उनके सहवास में रहनेवाली आत्मा का परिवर्तन होता है। जो आत्माएँ इस प्रकार आचरण करती हैं, वह सन्मार्ग की ओर प्रयाण करती हैं, उन्हीं का विकास होता है और वे ही कर्मों का ध्वंस करने में समर्थ होती हैं। ****** For Private And Personal Use Only

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