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( २४ ) जीव भी अनादिकाल से है और कर्म भी प्रवाह से अनादिकालीन हैं । जीव नये कर्म बाँधते हैं, पुराने भोगते हैं। इस प्रकार कर्मानुसार आत्मा की भिन्न-भिन्न दशा रहती है । इसलिए ईश्वर का कर्तृत्ववाद सर्वथा कपोलकल्पित है। एक घर में दस आदमी रहते हैं; पर उसके पालन करनेवाले को कितनी उपाधि उठानी पड़ती है; तब सारे संसार की उपाधि में पड़नेवाले ईश्वर को कितनी चिंता रखनी पड़ती होगी। फिर तो ईश्वर को हमारी अपेक्षा अधिक उपाधिवाला गिना जाना चाहिए | और, ऐसे उपाधि युक्त ईश्वर को सुखी कैसे कहा जा सकता है ?
ईश्वर यदि समर्थ है, तो उसने सबको एक समान क्यों नहीं बनाया ?
कोई ऐसा कहता है कि, फल तो कर्माधीन होते हैं, विचित्रता भी कर्मानुसार होती है तो फिर उससे पूछा जाये कि, तब ईश्वर ने विशेष क्या किया ? जब प्रत्येक आत्मा को कर्माधीन और कर्मानुसार फल मिलते हैं तो फिर ईश्वर को बीच में डालने की क्या आवश्यकता महसूस हुई।
इसलिए, ऐसी कल्पनाएँ करने की आवश्यकता नहीं । आत्मा और कर्मों के द्वारा ही सारी सृष्टि है। आत्मा और कर्म अनादि अवश्य हैं पर कर्म-रहित आत्मा के लिए सृष्टि का अंत आता है । जो आत्मा धर्माचरण द्वारा कर्मों का नाश कर डालती है, उस आत्मा की सृष्टि का अंत हो जाता है और वह परमात्मा बनती है !
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