Book Title: Arhat Dharm Prakash
Author(s): Kirtivijay Gani, Gyanchandra
Publisher: Aatmkamal Labdhisuri Jain Gyanmandir

View full book text
Previous | Next

Page 23
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस प्रकार जिनेश्वर देवों ने दया का श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम स्वरूप बताया है। झूठ का त्याग करो ! मित, प्रिय और सत्य बोलो !! झूठ बोलने से मुँह अपवित्र होता है !!! मनुष्य अपना विश्वास खो देता है। झूट भी हिंसा की तरह एक महापाप है । चोरी का त्याग करो किसी को धोखा मत दो, जेबें कतरना, ताले तोड़ना या किसी का धन-माल हजम कर जाना ये सब महान् पाप हैं। मिथ्या दस्तावेज, झूठी गवाही, पाप का उपदेश इन सबका त्याग करो । ब्रह्मचर्य का पालन करो, ब्रह्मचर्य आत्मज्ञान पैदा करने का अमोघ साधन है । देव तथा दानव भी शुद्ध ब्रह्मचारी के दास बनते हैं। उसके वचन की कीमत होती है । संसार में परम पुरुष और उत्तम पुरुष के रूप में उसकी गणना होती है। अधिक संग्रह मत करो, आवश्यकताओं को कम करो, किसी भी वस्तु पर ममता-भाव, मूर्छा, मत रखो-'संतोषी नर सदा सुखी' ! इसलिए, जितनी आवश्यकताएँ कम होंगी उतनी ही सुख-शांति होगी। आधुनिक युग में संपत्ति कौन-कौन से विषम कार्य कर रही है, उससे हम अनभिज्ञ नहीं हैं। इसीलिए जैन-धर्म का परिग्रह-परिमाण व्रत केवल एक देशिक नहीं पर सार्वदेशिक उपकारक है । रात्रि-भोजन का त्याग करो । रात्रि-भोजन से अनेक जीवों की हिंसा होती है । बुद्धि खराब होती है और दूसरे जन्म में दुर्गति में जाना पड़ता है । चलना पड़े तो नीचे भूमि को ओर भली भाँति देख-भालकर चलो। पानी इत्यादि छानकर पिओ । क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि ये सब–भयंकर शत्रु हैं । उन्हें कम करो। ___न तो किसीकी निन्दा करो और न किसी की ईया । आत्मा को पहचानो । व्यर्थ के लड़ाई-झगड़े में मत पड़ो। परस्पर प्रेमभाव रखो, For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82