Book Title: Arhat Dharm Prakash
Author(s): Kirtivijay Gani, Gyanchandra
Publisher: Aatmkamal Labdhisuri Jain Gyanmandir

View full book text
Previous | Next

Page 21
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आश्चर्यजनक विशालता जैन-धर्म के सिद्धांत वीतराग और सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित है; इसलिए वे ( असंकुचित ) विशाल तथा सत्यमूलक हैं और इसी से उनकी विश्वोपकारिता सिद्ध होती है । यह धर्म छोटे-से-छोटे प्राणी की भी रक्षा करने का आदेश देता है । जैन सिद्धांत का कथन है कि, जगत के सभी प्राणी (जीव ) जीवित रहने की इच्छा रखते हैं । किसी को मृत्यु इष्ट नहीं है । सबको सुख इष्ट है और दु:ख अनिष्ट है । जिस प्रकार अपूर्व ऋद्धि-सिद्धि में मग्न रहनेवाला इन्द्र भी जीवित रहने की आशा रखता है, उसी प्रकार विष्टा में रहने वाला कोट विष्टा में रहकर भी जीने को इच्छा रखता है । दोनों मरने से समान रूप से डरते हैं । इसलिए, मानव मात्र को हरेक प्राणी की रक्षा करनी चाहिए - चाहे वह एकेन्द्रिय हो, दो इन्द्रियों वाला हो, तीन इन्द्रियोंवाला हो, चार इन्द्रियोंवाला हो या पंचेन्द्रिय हो - पशु हो या मनुष्य हो । एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक तमाम प्राणियों की रक्षा करो । पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीव है । जैसी हमारी आत्मा है, वैसी ही सबकी है । जीव का धर्म संकोच विकासशील है । कीड़े की आत्मा और कुंजर की आत्मा में बिलकुल अंतर नहीं है । कुंजर की आत्मा ही कर्मबन्ध के कारण किसी समय कीड़ा रूप हो सकती है, पृथ्वीकायिक जीव, अपकायिक हो सकती है अथवा नरक आदि गतियों का अनुभव कर सकती हैं । इसे हम इस प्रकार कह सकते हैं कि, कर्म-बंध के कारण वही आत्मा एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक जीव-योनि धारण करती है । सबकी आत्मा समान है । इसीलिए, जिस प्रकार हमें दुःख होता है, For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82