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दो
और जीवन की भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ जिसको मार्गणाद्वार (Classified groups) कहते हैं, बड़े ही मननीय और विचारणीय विषय हैं, जिनके अध्ययन से जैनदर्शन की विशेषता का स्वतः अनुभव हुए बिना नहीं रहेगा।
जैन दर्शन का मन्तव्य है कि "युक्तिभावं भवेद्तत्त्वं न तत्वं युक्तिवर्जितं" प्रत्येक विषय में युक्तितर्क से समझाने की शैली बड़ी सुन्दर है । किसी भी कार्य में उसके साधक, बाधक, द्योतक, घातक, पोषक, शोषक आदि सब ही विषयों पर गम्भीर विवेचन जैनदर्शन में पाया जाता है । इसका खास कारण जैन-दर्शन का सर्वाङ्गसुन्दर स्याद्वाद न्याय है, जो ( Central Doctrine ) केन्द्रित सिद्धान्त समझा जाता है, जिसके प्रयोग से वस्तुस्थिति का भिन्न-भिन्न दृष्टि से सर्वदेशीय संपूर्ण बोध होता है। इसीलिए, इस स्याद्वाद को अनेकान्तवाद अथवा अपेक्षावाद भी कहते है । पाश्चात्य विद्वानों (Western Scholar) ने तो इस स्याद्वाद के सिद्धान्त की मुक्तकंट से प्रशंसा की है। उनकी तो यहाँ तक मान्यता है कि, यह संसार में संघटन साधने की महाशक्ति (Unifying Force) है, जिसके प्रयोग से संसारभर के समस्त पारस्परिक विचारविरोध के वैमनस्यों का संतोषजनक समाधान होता है । इसलिए, स्याद्वाद को (Compromising System of Philosophy) सुलह-शांतिकारक दर्शन कहा है ! डा० आइंस्टाइन-जैसे संसार के सर्वोपरि विज्ञानवेत्ता के सापेक्षवाद (Theory of Relativity) की मान्यता कितने ही अंशों में स्याद्बाद की छायामात्र है। कहने का सारांश यह है कि, तत्त्वनिर्णय का अत्युत्तम साधन स्यावाद होने से, जैनदर्शन का समस्त दर्शनों में प्रधान स्थान है। इस दर्शन में कपोल-कल्पित कल्पनाओं ( Imaginary Conceptions ) अथवा भ्रमणाओं (Superstitions) का किंचित् मात्र भी स्थान नहीं है। जिस अटल विधान के अनुसार इस विराट विश्व को व्यवस्था हो रही है, उस सुचारु शासन (Systematised Government) के मूल तत्त्वों (Substances) की यथार्थ प्ररूपणा से यह
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