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नमो जिणाणं आहत-धर्म-प्रकाश
जैन-धर्म विश्व के धर्मों में जैन-धर्म का स्थान सबसे अधिक महत्वपूर्ण है । जैनधर्म अनादि कालीन है। यह बात हम 'जैन' शब्द से ही समझ सकते हैं । जैसे कि, 'जिन' अर्थात् 'राग-द्वेषादीन् शत्रून् जयतीति जिनः' राग-द्वेषादि अंतरंग शत्रुओं पर जिसने विजय प्राप्त की है अर्थात् जिस आत्मा ने उन्हें जड़मूल से नष्ट कर डाले हों, वही आत्मा 'जिन' कहलाता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि वीतराग, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान परमात्मा जिन कहलाते हैं । ___उनके द्वारा प्ररूपित-उपदिष्ट धर्म ही जैन-धर्म कहलाता है । और, इसीलिए उनका अनुयायी वर्ग 'जैन'-रूप से पहचाना जाता है।
'जिन' शब्द व्यक्तिवाचक नहीं; परन्तु जातिवाचक है। जातिवाचक शब्द अनादि कालीन होते हैं। जब 'जिन' शब्द अनादि कालीन है तो जिन-प्ररूपित धर्म भी अनादि कालीन है; यह बात स्वयंसिद्ध है । जिस प्रकार ईसा मसीह ने ईसाई-धर्म शुरू किया, गौतम बुद्ध के द्वारा बौद्धधर्म का प्रारम्भ हुआ, इसी प्रकार इतर धर्मों की भी किन्हीं विशिष्ट व्यक्तियों के द्वारा ही उत्पत्ति हुई हैं। परन्तु, जैन धर्म को किसी एक व्यक्ति ने शुरू नहीं किया । यदि उसे किसी एक व्यक्ति ने शुरू किया होता तो वह बौद्ध-धर्म की तरह महावीर-धर्म, ऋषभ-धर्म इत्यादि संज्ञा द्वारा पहचाना जाता; परन्तु यह महावीर-धर्म या ऋषभ-धर्म आदि शब्दों से न पहचाना जाकर जैन-धर्म से ही पहचाना जाता है; इससे हम यह समझ सकते हैं कि, जैन-धर्म अनादि है।
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