Book Title: Aptavani 01
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 19
________________ आप्तवाणी-१ आप्तवाणी-१ नहीं होता। पुरुषार्थ वह है कि निष्फलता हो ही नहीं। यह तो विरोधाभास है। तू खुद ही पुरुष नहीं हुआ है, तब पुरुषार्थ कैसे करेगा भैया? सही पुरुषार्थ तो वही है जो स्वपराक्रम सहित हो। यह तो प्रकृति नचाती है, वैसे नाचता है और कहता है कि मैं नाचा! कृष्ण भगवान ने क्या कहा कि ऊद्धवजी, अबला तो क्या साधन करे? जैनों के सबसे बड़े आचार्य महाराज आनंदधनजी भी अपने को अबला बताते हैं, क्योंकि पुरुष किसे कहते है? जिसने क्रोध-मान-मायालोभ जीत लिए हों, उसे। यहाँ तो क्रोध-मान-माया-लोभ ने ही जिसे जीत लिया हो, वह तो अबला ही कहलाएगा न? __ मैं पुरुष हुआ हूँ, पुरुषार्थ और स्वपराक्रम सहित हूँ। ज्योतिष और पुरुषार्थ दोनों ही विरोधाभास है। ज्योतिष सही है. मगर जिसे परुषार्थ मानते हैं, वह भ्राँति है। घाटा हो तब ज्योतिषी के पास क्यों जाता है? कर न पुरुषार्थ ! यह पुरुषार्थ तो अगले जन्म के बीज डालता हैं। इस एलेम्बिक के कारखाने में अनेकों लोग काम करते हैं, तब केमिकल्स तैयार होते हैं और वह भी फिर एक ही कारखाना। यह देह तो अनेक कारखानों की बनी हुई है। लाख 'एलेम्बिक' के कारखानों की बनी हुई है, जो अपने आप चलते हैं। अरे! रात खाना खाकर सो गया, फिर अंदर कितना पाचकरस पड़ा, कितना पित्त पड़ा, कितना बॉइल पड़ा, उसका पता लगाने जाता है तू? वहाँ तू कितना एलर्ट (सावधान) रहता है? वहाँ तो अपने आप सारी क्रियाएँ हो कर सुबह पानी, पानी की जगह और संडास. संडास की जगह अलग होकर बाहर निकल जाता है और सारे तत्त्व रक्त में इखच जाते हैं। तो क्या वह सब तू चलना गया था? अरे! अंदर का जब अपने आप चलता रहता है, तो क्या बाहर का नहीं चलेगा? ऐसा क्यों मानते हैं कि मैं करता हूँ? वह तो चलता रहेगा। रात को नींद में शरीर सहज होता है। पर ये तो असहज! दिन में क्या कहता है, 'मैं सांस लेता हूँ, ठीक से लेता हूँ, ऊँची सांस लेता हूँ और नीची भी लेता हूँ' तब भैया रात में कौन लेता है? रात में जो श्वासोच्छवास चलते हैं, वे नोर्मल होते हैं। उससे अच्छी तरह से सब पाचन होता है। मनुष्य मात्र लटू है। मैं ज्ञानी हूँ पर यह देह लटू है? ये लटू जो हैं, वे सांस से ही चलते हैं। सांस की तरह डोरी लिपटने से लट्ट घूमता है। घूमते-घूमते कभी पल्टी मारता है तब हमें लगता है कि 'गया, गया' मगर फिर सीधा होकर घूमने लगता है, ऐसा है यह सब ! नीम का पत्ता-पत्ता, डाल-डाल कड़वे होते हैं। उसमें उसका क्या पुरुषार्थ? वह तो बीज में जो पड़ा है, वह प्रकट होता है। वैसे ही मनुष्य अपने प्राकृत स्वभाव से व्यवहार करता है और 'मैंने किया' का अहंकार करता है। उसमें उसने क्या किया? संसार में लोग जिसे पुरुषार्थ कहते हैं, वह तो भ्राँत भाषा है। रिलेटिव भाषा है। उदयकर्म के अनुसार होता है, उसे 'मैंने किया' कहता है, जो गर्व है, अहंकार है। रियल भाषा का पुरुषार्थ, जो यथार्थ पुरुषार्थ है वह पुरुष होने के बाद ही, स्वरूप का भान होने के बाद ही शुरू होता है। उसमें 'मैंने किया' यह भाव ही सारा उड़ गया होता है। संपूर्ण अकर्ता पद होता है। रिलेटिव सब प्रकृति है और रियल खुद पुरुष है। रियल पुरुषार्थ किसे कहते है? कोई हमारा हाथ काट रहा हो, तब हम 'खुद' ज्ञाता-दृष्टा पद में रहें, उसे। ज्ञानक्रिया और दर्शनक्रिया ही आत्मा की क्रियाएँ हैं। अन्य सब जगह आत्मा अक्रिय है। आत्मा की और कोई क्रिया नहीं है और 'आत्मा' ज्ञान-दर्शन में रहे, वही पुरुषार्थ है। कबीरजी की बीवी को बच्चा होनेवाला था। उससे पहले तो आंचल दूध से भर गया और बच्चा होते ही दूध की धारा बह निकली उसे देखकर कबीरजी बोले, 'प्रारब्ध पहले बना, पीछे बना शरीर, कबीर, अचंभा ये है, मन नहीं बांधे धीर।' अविरोधाभासी अवलंबन प्रारब्ध की रट लगाकर बैठे रह सकें ऐसा नहीं है, क्योंकि अकेले प्रारब्ध का अवलंबन लेकर बैठ जाएँ, तो बिल्कुल निष्क्रिय हो जाएँगे।

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